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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । अर्थ-जिन जीवोंकी अनन्तचतुष्टयरूप सिद्धि होनेवाली हो अथवा जो उसकी प्राप्तिके योग्य हों उनको भव्यसिद्ध कहते हैं । जिनमें इन दोनोंमेंसे कोई भी लक्षण घटित न हो उन जीवोंको अभव्यसिद्ध कहते हैं । भावार्थ-कितने ही भव्य ऐसे हैं जो मुक्तिकी प्राप्तिके योग्य हैं; परन्तु कभी मुक्त न होंगे; जैसे बन्ध्यापनेके दोषसे रहित विधवा सती स्त्रीमें पुत्रोत्पत्तिकी योग्यता है; परन्तु उसके कभी पुत्र उत्पन्न नहीं होगा । कोई भव्य ऐसे हैं जो नियमसे मुक्त होंगे । जैसे बन्ध्यापनेसे रहित स्त्रीके निमित्त मिलने पर नियमसे पुत्र उत्पन्न होगा । इन दोंनो खभावोंसे जो रहित हैं उनको अभव्य कहते हैं । जैसे बन्ध्या स्त्रीके निमित्त मिलै चाहे न मिलै; परन्तु पुत्र उत्पन्न नहीं हो सकता है।
जिनमें मुक्तिप्राप्तिकी योग्यता है उनको भव्यसिद्ध कहते हैं इस अर्थको दृष्टान्तद्वारा स्पष्ट करते हैं।
भवत्तणस्स जोग्गा जे जीवा ते हवंति भवसिद्धा। ण हु मलविगमे णियमा ताणं कणओवलाणमिव ॥ ५५७ ॥ भव्यत्वस्य योग्या ये जीवास्ते भवन्ति भवसिद्धाः ।
न हि मलविगमे नियमात् तेषां कनकोपलानामिव ॥ ५५७ ॥ अर्थ-जो जीव अनन्तचतुष्टयरूप सिद्धिकी प्राप्तिके योग्य हैं; परन्तु उस सिद्धिको कभी प्राप्त न होंगे उनको भवसिद्ध कहते हैं । इसप्रकारके जीवोंका कर्ममल नियमसे दूर नहीं हो सकता । जैसे कनकोपलका। भावार्थ-ऐसे बहुतसे कनकोपल हैं जिनमें निमित्त मिलनेपर शुद्ध स्वर्णरूप होनेकी योग्यता है; परन्तु उनकी इस योग्यताकी अभिव्यक्ति कभी नहीं होगी । अथवा जिसतरह अहमिन्द्र देवोंमें नरकादिमें गमन करनेकी शक्ति है परन्तु उस शक्तिकी अभिव्यक्ति कभी नहीं होती। इस ही तरह जिन जीवोंमें अनंतचतुष्टयको प्राप्त करनेकी योग्यता है परन्तु उनको वह कभी प्राप्त नहीं होगी उनको भवसिद्ध कहते हैं। ये जीव सदा संसारमें ही रहते हैं।
ण य जे भवाभवा मुत्तिसुहातीदणंतसंसारा । ते जीवा णायचा व य भवा अभवा य ॥ ५५८ ॥ न च ये भव्या अभव्या मुक्तिसुखा अतीतानन्तसंसाराः।
ते जीवा ज्ञातव्या नैव च भव्या अभव्याश्च ॥ ५५८ ॥ अर्थ-जिनका पांच परिवर्तनरूप अनन्त संसार सर्वथा छूट गया है, और जो मुक्तिसुखके भोक्ता हैं उन जीवोंको न तो भव्य समझना चाहिये और न अभव्य समझना चाहिये; क्योंकि अब उनको कोई नवीन अवस्था प्राप्त करना शेष नहीं रहा है इसलिये वे भव्य भी नहीं हैं । और अनन्त चतुष्टयको प्राप्त हो चुके हैं इसलिये अभव्य भी
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