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रायचन्द्र जैनशास्त्रमालायाम् ।
सुक्कस्स समुग्धादे असंखलोगा य सबलोगो य । शुक्कायाः समुद्धाते असंख्यलोकाश्च सर्वलोकञ्च ।
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अर्थ – इस सूत्र के पूर्वार्धमें शुक्ललेश्याका क्षेत्र लोकके असंख्यात भागोंमेंसे एक भागको छोड़कर शेष बहुभाग प्रमाण वा सर्व लोक बताया है सो केवल समुद्धातकी अपेक्षासे है । भावार्थ- शुक्ल लेश्याका क्षेत्र दूसरे स्थानों में उक्त रीति से ही समझना ।
क्रमप्राप्त स्पर्शाधिकारका वर्णन करते हैं ।
फासं सवं लोयं तिठ्ठाणे असुहलेस्साणं ॥ ५४४ ॥ स्पर्शः सर्वो लोकस्त्रिस्थाने अशुभलेश्यानाम् ॥ ५४४ ॥
अर्थ — कृष्ण आदि तीन अशुभ लेश्यावाले जीवोंका स्पर्श स्वस्थान, समुद्धात, उपपाद, इन तीन स्थानोंमें सामान्य से सर्व लोक है भावार्थ - वर्तमान में जितने प्रदेशों में जीव रहे उतनेको क्षेत्र कहते हैं । और भूत तथा वर्तमान काल में जितने प्रदेशों में जीव रहे उतनेको स्पर्श कहते हैं । सो तीन अशुभलेश्यावाले जीवोंका स्पर्श उक्त तीन स्थानोंमें सामान्यसे सर्वलोक है । विशेषकी अपेक्षासे कृष्णलेश्यावालोंका दश स्थानों में से स्वस्थानस्वस्थान, वेदना कषाय मारणान्तिक समुद्धात, तथा उपपादस्थान में सर्वलोकप्रमाण स्पर्श है । संख्यात सूच्यंगुलको जगत्प्रतरसे गुणा करने पर जो प्रमाण उत्पन्न हो उतना विहारवत्स्वस्थानमें स्पर्श है । तथा वैक्रियिक समुद्धात में लोकके संख्यातमे भागप्रमाण स्पर्श है | और इस लेश्यामें तैजस आहारक केवल समुद्धात नहीं होता । कृष्णलेश्या के समान ही नील तथा कापोतलेश्या का भी स्पर्श समझना ।
तेजोलेश्या में स्पर्शका वर्णन करते हैं ।
तेरस य सट्टाणे लोगस्स असंखभागमेत्तं तु ।
अडचोइस भागा वा देसूणा होंति नियमेण ॥ ५४५ ॥ तेजसश्च स्वस्थाने लोकस्य असंख्यभागमात्रं तु ।
अष्ट चतुर्दशभागा वा देशोना भवन्ति नियमेन ॥ ५४५ ॥
अर्थ — पीतलेश्याका स्वस्थानस्वस्थानकी अपेक्षा लोकके असंख्यात मे भागप्रमाण स्पर्श है । और विहारवत्स्व स्थानकी अपेक्षा त्रसनालीके चौदह भागों में से कुछ कम आठ भाग - माण स्पर्श है ।
एवं तु समुग्धादे णव चोहसभागयं च किंचूणं । उववादे पढमपदं दिवडचोइस य किंचूणं ॥ ५४६ ॥ एवं तु समुद्घाते नव चतुर्दशभागञ्च किञ्चिदूनः । उपपादे प्रथमपदं द्व्यर्धचतुर्दश च किञ्चिदूनम् ॥ ५४६ ॥
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