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गोम्मटसारः।
१९१ अपूर्वकरणसे लेकर सयोगकेवलीपर्यन्त एक शुक्ललेश्या ही होती है । और अयोगकेवली गुणस्थान लेश्यारहित है।
णठुकसाये लेस्सा उच्चदि सा भूदपुवगदिणाया। अहवा जोगपउत्ती मुक्खोत्ति तहिं हवे लेस्सा ॥ ५३२ ॥ नष्टकषाये लेश्या उच्यते सा भूतपूर्वगतिन्यायात् ।
अथवा योगप्रवृत्तिः मुख्येति तत्र भवेल्लेश्या ॥ ५३२ ॥ अर्थ-अकषाय जीवोंके जो लेश्या बताई है वह भूतपूर्वप्रज्ञापन नयकी अपेक्षासे बताई है । अथवा, योगकी प्रवृत्तिको लेश्या कहते हैं। इस अपेक्षासे वहां पर मुख्यरूपसे भी लेश्या है; क्योंकि वहां पर योगका सद्भाव है ।
तिण्हं दोण्हं दोण्हं छण्हं दोण्हं च तेरसण्हं च । एत्तो य चोदसण्हं लेस्सा भवणादिदेवाणं ॥ ५३३ ॥ तेऊ तेऊ तेऊ पम्मा पम्मा य पम्मसुक्का य । सुक्का य परमसुक्का भवणतिया पुण्णगे असुहा ॥ ५३४ ॥ त्रयाणां द्वयोर्द्वयोः षण्णां द्वयोश्च त्रयोदशानां च । एतस्माच्च चतुर्दशानां लेश्या भवनादिदेवानाम् ॥ ५३३ ॥ तेजस्तेजस्तेजः पद्मा पद्मा च पद्मशुक्ले च ।
शुक्ला च परमशुक्ला भवनत्रिका अपूर्णके अशुभाः॥ ५३४ ॥ अर्थ-भवनवासी व्यन्तर ज्योतिषी इन तीन देवोंके पीतलेश्याका जघन्य अंश है । सौधर्म ईशान स्वर्गवाले देवों के पीतलेश्याका मध्यम अंश है । सनत्कुमार माहेन्द्र वर्गवालोंके पीतलेश्याका उत्कृष्ट अंश और पद्मलेश्याका जघन्य अंश है । ब्रह्म ब्रह्मोत्तर लांतव कापिष्ठ शुक्र महाशुक्र इन छह वर्गवालों के पालेश्याका मध्यम अंश है । शतार सहस्रार वर्गवालोंके पद्मलेश्याका उत्कृष्ट अंश और शुक्ललेश्याका जघन्य अंश है । आनत प्राणत आरण अच्युत तथा नव ग्रैवेयक इन तेरह वर्गवाले देवोंके शुक्ललेश्याका मध्यम अंश है । इसके ऊपर नव अनुदिश तथा पांच अनुत्तर इन चौदह विमानवाले देवोंके शुक्ल लेश्याका उत्कृष्ट अंश होता है । भवनवासी आदि तीन देवों के अपर्याप्त अवस्था में कृष्ण आदि तीन अशुभ लेश्या ही होती हैं । भावाथे-जब भवनत्रिक देवों के अपर्याप्त अवस्थामें अशुभ तीन लेश्या और पर्याप्त अवस्थामें पीत लेश्याका जघन्य अंश बताया इससे मालुम होता है कि शेष वैमानिक देवोंके पर्याप्त और अपर्याप्त अवस्थामें लेश्या समान ही होती है।
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