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गोम्मटसारः।
पञ्चसमितः त्रिगुप्तः परिहरति सदापि यो हि सावद्यम् ।
पञ्चैकयमः पुरुषः परिहारकसंयतः स हि ॥ ४७१ ॥ अर्थ-पांच प्रकारके संयमिः पोंमेंसे जो जीव पांच समिति तीन गुप्तिको धारण कर सदा सावधका त्याग करता है उस पुरुसको परिहारविशुद्धिसंयमी कहते हैं । इसीका विशेष स्वरूप कहते हैं।
तीसं वासो जम्मे पासपुधत्तं खु तित्थयरमूले । पचक्खाणं पढिदो संझूणदुगाउयविहारो ॥ ४७२ ॥ त्रिंशद्वार्षों जन्मनि वा पृथक्त्वं खलु तीर्थकरमूले ।
प्रत्याख्यानं पठितः सं ध्योनद्विगव्यूतिविहारः ॥ ४७२ ।। अर्थ-जन्मसे तीस वर्षतक सुखी : रहकर दीक्षा ग्रहण करके श्री तीर्थकरके पादमूलमें आठ वर्षतक प्रत्याख्यान नामक नौमे पूर्वका अध्ययन करनेवाले जीवके यह संयम होता है । इस संयमवाला जीव तीन संध्य कालोंको छोड़कर दो कोस पर्यन्त गमन करता है; किन्तु रात्रिको गमन नहीं करता । और वर्षाकालमें गमन करनेका नियम नहीं है। भावार्थ-जिस संयममें परिहारके साथ विशुद्धि हो उसको परिहारविशुद्धि संयम कहते हैं । प्राणिपीडाके त्यागको परिहार कहते हैं । इस संयमवाला जीव जीवराशिमें विहार करता हुआ भी जलसे कमल को तरह हिंसासे लिप्त नहीं होता। सूक्ष्मसाम्पराय संयमवाने का स्वरूप बताते हैं।
अणुलोहं रेवदंतो जीवो उवसामगो व खवगो वा। सो सुहुम सांपराओ जहखादेणूणओ किंचि ॥ ४७३ ॥ अणुलो' में विदन् जीवः उपशामको वा क्षपको वा।
स सूर मिसाम्परायः यथाख्येतेनोनः किञ्चित् ॥ ४७३ ॥ अर्थ-जिस उप (शमश्रेणी अथवा क्षपक श्रेणिवाले जीवके सूक्ष्मकृष्टिको प्राप्त लोभकषायका उदय होता है, उसको सूक्ष्मसांपरायसंयमी कहते हैं। इसके परिणाम यथाख्यात चारित्रवाले जीवके परिणामोंसे कुछ ही कम होते हैं। क्योंकि यह संयम दशमे गुणस्थानमें होता है, और यः याख्यात संयम ग्यारहमेसे शुरू होता है। यथाख्यात र संयमका स्वरूप बताते हैं।
उ वसंते खीणे वा असुहे कम्मम्मि मोहणीयम्मि ।
ह दुमट्टो व जिणो वा जहखादो संजदो सो दु॥ ४७४ ॥ १ परिहार द्वसमेतः जीवः षटकायसंकुले विहरत् । पयसेव पद्मपत्रं न लिप्यते पापनिवहेन ॥ १ ॥
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