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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । अशुभ लेश्याओंमेंसे उत्कृष्ट कृष्ण लेश्याको छोड़कर नील लेश्यारूपमें और नीलको छोड़कर कापोतरूपमें परिणमन करता है।
काऊ णीलं किण्हं परिणमदि किलेसवहिदो अप्पा । एवं किलेसहाणीवड्डीदो होदि असुहतियं ॥ ५०१ ॥
कापोतं नीलं कृष्णं परिणमति क्लेशवृद्धित आत्मा । ___एवं क्लेशहानिवृद्धितः भवति अशुभत्रिकम् ॥ ५०१ ॥ अर्थ-उत्तरोत्तर संक्लेशपरिणामोंकी वृद्धि होनेसे यह आत्मा कापोतसे नील और नीलसे कृष्णलेश्यारूप परिणमन करता है । इस तरह यह जीव संक्लेशकी हानि और वृद्धिकी अपेक्षासे तीन अशुभ लेश्यारूप परिणमन करता है।
तेऊ पडमे सुक्के सुहाणमवरादिअंसगे अप्पा । सुद्धिस्स य वड्डीदो हाणीदो अण्णदा होदि ॥ ५०२ ॥ तेजसि पद्मे शुक्ले शुभानामवराधेशगे आत्मा।
शुद्धेश्च वृद्धितो हानितः अन्यथा भवति ॥ ५०२ ॥ अर्थ- उत्तरोत्तर विशुद्धिकी वृद्धि होनेसे यह आत्मा पीत पद्म शुक्ल इन तीन शुभ लेश्याओंके जघन्य मध्यम उत्कृष्ट अंशरूपमें परिणमन करता है । तथा विशुद्धिकी हानि होनेसे उत्कृष्टसे जघन्यपर्यन्त शुक्ल पद्म पीत लेश्यारूप परिणमन करता है । इस तरह शुद्धिकी हानि वृद्धि होनेसे शुभ लेश्याओंका परिणमन होता है । उक्त परिणामाधिकारको मनमें रखकर संक्रमाधिकारका निरूपण करते हैं।
संकमणं सट्टाणपरहाणं होदि किण्हसुक्काणं । वड्डीसु हि सट्ठाणं उभयं हाणिम्मि सेस उभयेवि ॥ ५०३ ॥ संक्रमणं स्वस्थानपरस्थानं भवति कृष्णशुक्लयोः ।
वृद्धिषु हि स्वस्थानमुभयं हानौ शेषस्योभयेऽपि ॥ ५०३ ॥ अर्थ—परिणामोंकी पलटनको संक्रमण कहते हैं। उसके दो भेद हैं, एक खस्थानसंक्रमण दूसरा परस्थान-संक्रमण । किसी विवक्षित लेश्याका एक परिणाम छूटकर उस ही लेश्यारूप जब दूसरा परिणाम होता है, वहां खस्थान-संक्रमण होता है । और किसी विवक्षित लेश्याका एक परिणाम छूटकर किसी दूसरी लेश्या ( विवक्षित लेश्यासे भिन्न ) का जब कोई परिणाम होता है वहां परस्थान-संक्रमण होता है। ___ कृष्ण और शुक्ललेश्यामें वृद्धिकी अपेक्षा स्वस्थान-संक्रमण ही होता है । और हानिकी अपेक्षा स्वस्थान परस्थान दोनों ही संक्रमण होते हैं। तथा शेष चार लेश्याओंमें हानि तथा वृद्धि दोनों अपेक्षाओंमें स्वस्थान परस्थान दोनों संक्रमणोंके होनेकी सम्भावना है।
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