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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् ।
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हैं । इसके कृष्ण नील कापोत पीत पद्म शुक्ल ये छह भेद हैं । तथा प्रत्येकके उत्तर भेद अनेक हैं ।
छप्पयणील कवोद सुहेमंबुजसंखसण्णिहा वण्णे | संखेज्जासंखेजाणंतवियप्पा य पत्तेयं ॥ ४९४ ॥
षट्पदनीलकपोतसुहेमाम्बुजशङ्खसन्निभाः वर्णे । संख्येयासंख्येयानन्तविकल्पाश्च प्रत्येकम् ॥ ४९४ ॥
अर्थ -- वर्णकी अपेक्षा से भ्रमर के समान कृष्णलेश्या, नीलमणिके ( नीलम के ) समान नीललेश्या, कबूतरके समान कापोतलेश्या, सुवर्णके समान पीतलेश्या, कमलके समान पद्मलेश्या, शंखके समान शुक्ललेश्या होती है । इनमेंसे प्रत्येकके इन्द्रियोंसे प्रकट होने की अपेक्षा संख्यात भेद हैं, तथा स्कन्धकी अपेक्षा असंख्यात और परमाणुभेदकी अपेक्षा अनन्त भेद हैं ।
किस गति में कोनसी लेश्या होती है यह बताते हैं ।
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णिरया किन्हा कप्पा भावाणुगया हु तिसुरणरतिरिये । उत्तर देहे छक्कं भोगे रविचंदहरिदंगा ॥। ४९५ ॥
निरयाः कृष्णाः कल्पाः भावानुगता हि त्रिसुरनरतिरश्चि । उत्तर देहे षट्कं भोगे रविचन्द्रहरिताङ्गाः ।। ४९५ ॥
अर्थ - सम्पूर्ण नारकी कृष्णवर्ण हैं । कल्पवासी देवोंकी द्रव्यलेश्या ( शरीरका वर्ण ) भावलेश्या के सदृश होता है । भवनवासी व्यन्तर ज्योतिषी मनुष्य तिर्यञ्च इनकी द्रव्यलेश्या छहों होती हैं । तथा विक्रिया के द्वारा उत्पन्न होनेवाले शरीरका वर्ण भी छह प्रकारमेंसे किसी एक प्रकारका होता है । उत्तम भोगभूमिवालोंका सूर्यसमान, मध्यम भोगभूमिवालोंका चन्द्रसमान, तथा जघन्य भोगभूमिवालोंका हरितवर्ण शरीर होता है । बादरआऊऊ सुक्कातेऊय वाउकायाणं ।
गोमुत्तमुग्गवण्णा कमसो अच्वत्तवण्णो य ॥ ४९६ ॥
बादराप्तैजसौ शुक्लतेजसौ वायुकायानाम् ।
गोमूत्रमुद्गवर्णौ क्रमशः अव्यक्तवर्णश्च ॥ ४९६ ॥
अर्थ — क्रमसे बादर जलकायिककी द्रव्यलेश्या शुक्ल और बादर तेजस्कायिककी पीत होती है । वायुकायके तीन भेद हैं, घनोदधिवात, घनवात, तनुवात । इनमें से प्रथमका शरीर गोमूत्रवर्ण, दूसरेका शरीर मूंगसमान, और तीसरेके शरीरका वर्ण अव्यक्त है ।
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सवेसिं सुहुमाणं कावोदा सब विग्गहे सुक्का ।
सो मिस्सो देहो कवोदवण्णो हवे णियमा ॥ ४९७ ॥
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