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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । अर्थ-यथाख्यात संयम नियमसे मोहनीय कर्मके उपशम तथा क्षयसे भी होता है ऐसा जिनेन्द्रदेवने कहा है।
तदियकसायुदयेण य विरदाविरदो गुणो हवे जुगवं । विदियकसायुदयेण य असंजमो होदि णियमेण ॥ ४६८॥
तृतीयकषायोदयेन च विरताविरतो गुणो भवेत् युगपत् । ___ द्वितीयकषायोदयेन च असंयमो भवति नियमेन ॥ ४६८ ॥ अर्थ-तीसरी प्रत्याख्यानावरण कषायके उदयसे विरताविरत देशविरत मिश्रविरत पांचमा गुणस्थान होता है । और दूसरी अप्रत्याख्यान कषायके उदयसे असंयम (संयमका अभाव ) होता है। सामायिक संयमका निरूपण करते हैं।
संगहिय सयलसंजममेयजममणुत्तरं दुरवगम्मं । जीवो समुहंतो सामाइयसंजमो होदि ॥ ४६९ ॥
संगृह्य सकलसंयममेकयममनुत्तरं दुरवगम्यम् ।
जीवः समुद्वहन् सामायिकसंयमो भवति ॥ ४६९ ॥ अर्थ-उक्त व्रतधारण आदिक पांच प्रकारके संयममें संग्रह नयकी अपेक्षासे अभेद करके " मैं सर्व सावद्यका त्यागी हूं" इस तरह जो सम्पूर्ण सावद्यका त्याग करना इसको सामायिक संयम कहते हैं । यह संयम अनुपम तथा दुर्धर्ष है । इसके पालन करने वालेको सामायिकसंयम ( मी ) कहते हैं। छेदोपस्थापना संयमका निरूपण करते हैं।
छेत्तूण य परियायं पोराणं जो ठवेइ अप्पाणं । पंचजमे धम्मे सो छेदोवट्ठावगो जीवो ॥ ४७० ॥
छित्त्वा च पर्यायं पुराणं यः स्थापयति आत्मानम् ।
पंचयमे धर्मे सः छेदोपस्थापको जीवः ॥ ४७० ॥ अर्थ-प्रमादके निमित्तसे सामायिकादिसे च्युत होकर जो सावध क्रियाके करनेरूप सावधपर्याय होती है, उसका प्रायश्चित्तविधिके अनुसार छेदन करके जो जीव अपनी आत्माको व्रतधारणादिक पांचप्रकारके संयमरूप धर्ममें स्थापन करता है उसको छेदोपस्थापनसंयमी कहते हैं। परिहारविशुद्धिसंयमीका खरूप बताते हैं ।
पंचसमिदो तिगुत्तो परिहरइ सदावि जो हु सावजं । पंचेकजमो पुरिसो परिहारयसंजदो सो हु ॥ ४७१ ॥
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