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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । जं सामण्णं गहणं भावाणं णेव कटुमायारं । अविसेसदूण अठे दसणमिदि भण्णदे समये ॥ ४८१॥ यत् सामान्यं गृहणं भावानां नैव कृत्वाकारम् ।।
अविशेष्यार्थान् दर्शनमिति भण्यते समये ॥ ४८१ ॥ अर्थ-सामान्यविशेषात्मक पदार्थके विशेष अंशका ग्रहण न करके केवल सामान्य अंशका जो निर्विकल्परूपसे ग्रहण होता है उसको परमागममें दर्शन कहते हैं । उक्त अर्थको ही स्पष्ट करते हैं ।
भावाणं सामण्णविसेसयाणं सरूवमेत्तं जं। वण्णणहीणग्गहणं जीवेण य दंसणं होदि ॥ ४८२ ॥ भावानां सामान्यविशेषकानां स्वरूपमात्रं यत् ।
वर्णनहीनग्रहणं जीवेन च दर्शनं भवति ॥ ४८२ ॥ अर्थ-निर्विकल्परूपसे जीवके द्वारा जो सामान्यविशेषात्मक पदार्थोंकी खपरसत्ताका अवभासन होता है उसको दर्शन कहते हैं । भावार्थ-पदार्थोंमें सामान्य विशेष दोनों ही धर्म रहते हैं; किन्तु केवल सामान्य धर्मकी अपेक्षासे जो खपरसत्ताका अभासन होता है उसको दर्शन कहते हैं । इसका शब्दोंके द्वारा प्रतिपादन नहीं किया जा सकता। इसके चारभेद हैं चक्षुदर्शन अचक्षुदर्शन अवधिदर्शन केवलदर्शन । प्रथम चक्षु दर्शन और अचक्षु दर्शनका खरूप कहते हैं:
चक्खूण जं पयासइ दिस्सइ तं चक्खुदंसणं बैंति । सेसिदियप्पयासो णायचो सो अचक्खूत्ति ॥ ४८३ ॥ चक्षुषोः यत् प्रकाशते पश्यति तत् चक्षुदर्शनं ब्रुवन्ति ।
शेषेन्द्रियप्रकाशो ज्ञातव्यः स अचक्षुरिति ॥ ४८३ ॥ अर्थ-जो पदार्थ चक्षुरिन्द्रियका विषय है उसका देखना, अथवा वह जिसके द्वारा देखा जाय, यद्वा उसके देखनेवालेको चक्षुदर्शन कहते हैं । और चक्षुके सिवाय दूसरी चार इन्द्रियोंके अथवा मनके द्वारा जो अपने २ विषयभूत पदार्थका सामान्य ग्रहण होता है उसको अचक्षुदर्शन कहते हैं। अवधिदर्शनका स्वरूप बताते हैं।
परमाणुआदियाई अंतिमखंधत्ति मुत्तिदवाई। तं ओहिदंसणं पुण जं पस्सइ ताई पञ्चक्खं ॥ ४८४ ॥
परमाण्वादीनि अन्तिमस्कन्धमिति मूर्तद्रव्याणि ।। तवधिदर्शनं पुनः यत् पश्यति तानि प्रत्यक्षम् ॥ ४८४ ॥
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