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गोम्मटसारः। अर्थ—पुद्गल द्रव्य त्रिकालविषयक है । उसमें वर्तमान जीवके द्वारा चिन्यमान (वर्तमानमें जिसका चितवन किया जा रहा है) पदार्थको ऋजुमति मनःपर्यय ज्ञान जानता है । और विपुलमतिज्ञान भूत भविष्यत्को भी जानता है। भावार्थ-जिसका भूतकालमें चिन्तवन किया हो अथवा जिसका भविष्यत्में चिन्तवन किया जायगा यद्वा वर्तमानमें जिसका चिन्तवन होरहा है, ऐसे तीनों ही प्रकारके पदार्थको विपुलमलि मनःपर्यय ज्ञान जानता है ।
सवंगअंगसंभवचिण्हादुप्पज्जदे जहा ओही। मणपजवं च दवमणादो उप्पजदे णियमा ॥ ४४१॥ सर्वाङ्गाङ्गसम्भवचिह्नादुत्पद्यते यथावधिः ।
मनःपर्ययं च द्रव्यमनस्त उत्पद्यते नियमात् ॥ ४४१ ।। अर्थ-जिस प्रकार अवधिज्ञान शंखादि शुभ चिहोंसे युक्त समस्त अङ्गसे उत्पन्न होता है । उस तरह मनःपर्यय ज्ञान जहां पर द्रव्यमन होता है उनही प्रदेशोंसे उत्पन्न होता है। भाषार्थ-जहांपर द्रव्य मन होता है उस स्थानपर जो आत्माके प्रदेश हैं वहीं मनःपर्यय ज्ञानावरण कर्मका क्षयोपशम होता और वहींसे मनःपर्यय ज्ञान उत्पन्न होता है। किन्तु अवधि सर्वाङ्गसे होती है। क्योंकि यद्यपि अवधि शंखादि चिन्हों के स्थानसे ही होती है तथापि इन चिन्हों का स्थान द्रव्यमन की तरह निश्चित नहीं है । यह उत्पत्तिस्थानकी अपेक्षा अवधि और मनःपर्यय ज्ञानमें अंतर है।
हिदि होदि हु दद्यमणं वियसियअट्टच्छदारविंदं वा । अङ्गोबंगुदयादो मणवग्गणखंधदो णियमा ॥ ४४२ ॥ हृदि भवति हि द्रव्यमनः विकसिताष्टछदारविंदवत् ।
आङ्गोपाङ्गोदयात् मनोवर्गणास्कन्धतो नियमात् ॥ ४४२ ॥ अर्थ-आङ्गोपाङ्गनामकर्मके उदयसे मनोवर्गणाके स्कन्धोके द्वारा हृदयस्थानमें नियमसे विकसित आठ पांखड़ीके कमलके आकारमें द्रव्यमन उत्पन्न होता है ।
गोइंदियत्ति सण्णा तस्स हवे सेसईदियाणं वा। बत्तत्ताभावादो मणमणपजं च तत्थ हवे ॥ ४४३ ॥ नोइन्द्रियमिति संज्ञा तस्य भवेत् शेषेन्द्रियाणां वा।
व्यक्तस्वाभावात् मनो मनःपर्ययश्च तत्र भवेत् ॥ ४४३ ॥ अर्थ-इस द्रव्यमनकी नोइन्द्रिय संज्ञा भी हैं। क्योंकि दूसरी इन्द्रियोंकी तरह यह व्यक्त नहीं है । इस द्रव्यमन के होनेपर ही भावमन तथा मनःपर्यय ज्ञान उत्पन्न होता है।
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