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गोम्मटसारः ।
आवलिअसंखभागं अवरं च वरं च वरमसंखगुणं ।
तत्तो असंखगुणिदं असंखलोगं तु विउलमदी || ४५७ ॥
आवल्यसंख्यभागमवरं च वरं च वरमसंख्यगुणम् ।
ततः असंख्यगुणितमसंख्यलोकं च विपुलमतिः ॥ ४५७ ॥
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केवलज्ञानका निरूपण करते हैं ।
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अर्थ-भावकी अपेक्षासे ऋजुमतिका जघन्य तथा उत्कृष्ट विषय आवलीके असंख्यातमे भागप्रमाण है; तथापि जघन्य प्रमाणसे उत्कृष्ट प्रमाण असंख्यातगुणा है । विपुलम - तिका जघन्यप्रमाण ऋजुमतिके उत्कृष्ट विषयसे असंख्यातगुणा है, और उत्कृष्ट विषय असंख्यात लोकप्रमाण है ।
मज्झिमदवं खेत्तं कालं भावं च मज्झिमं णाणं ।
जादि इदि मणपजवणाणं कहिदं समासेण ॥ ४५८ ॥ मध्यमद्रव्यं क्षेत्रं कालं भावं च मध्यमं ज्ञानम् ।
जानातीति मन:पर्ययज्ञानं कथितं समासेन ॥ ४५८ ॥
अर्थ - इस प्रकार द्रव्य क्षेत्र काल भावका जघन्य और उत्कृष्ट प्रमाण बताया इनके मध्यके जितने भेद हैं उनको मन:पर्यय ज्ञानके मध्यम भेद विषय करते हैं । इस तरह संक्षेपसे मन:पर्ययज्ञानका निरूपण किया ।
संपुरणं तु समग्गं केवलमसवत्त सवभावगयं । लोयालयवितिमिरं केवलणाणं मुणेदवं ॥ ४५९ ॥
सम्पूर्ण तु समग्रं केवलमसपत्नं सर्वभावगतम् ।
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लोकालोकवितिमिरं केवलज्ञानं मन्तव्यम् ॥ ४५९ ॥
अर्थ – यह केवलज्ञान, सम्पूर्ण, समग्र, केवल, प्रतिपक्षरहित, सर्वपदार्थगत, और लोकालोकमें अन्धकार रहित होता है । भावार्थ - यह ज्ञान समस्त पदार्थोंको विषय करनेवाला है और लोकालोकके विषयमें आवरण रहित है । तथा जीवद्रव्यकी ज्ञान शक्तिके जितने अंश है वे यहां पर सम्पूर्ण व्यक्त होगये हैं इसलिये उसको ( केवल ज्ञानको ) सम्पूर्ण कहते हैं | मोहनीय और अन्तरायका सर्वथा क्षय होजाने के कारण वह अप्रतिहतशक्ति युक्त है, अतएव उसको समग्र कहते हैं । इन्द्रियों की सहायता की अपेक्षा नहीं रखता इसलिये केवल कहते हैं । समस्त पदार्थोंके विषयकरनेमें उसका कोई बाधक नहीं है इसलिये उसको असपत्न ( प्रतिपक्षरहित ) कहते हैं ।
ज्ञानमार्गणामें जीवसंख्याका निरूपण करते हैं ।
चदुर्गादिमदिसुदवोहा पलासंखेज्जया हु मणपज्जा । संखे केवल सिद्धादो होंति अतिरित्ता ॥ ४६० ॥
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