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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् ।
अष्टानां कर्मणां समयप्रबद्धं विविस्रसोपचयम् ।
. ध्रुवहारेणैकवारं भजिते द्वितीयं भवेत् द्रव्यम् ॥ ४५२ ॥ अर्थ-विसोपचयसे रहित आठ कर्मोंके समयप्रबद्धका जो प्रमाण है उसमें एकवार ध्रुवहारका भाग देनेसे जो लब्ध आवे उतना विपुलमतिके द्वितीय द्रव्यका प्रमाण होता है । तचिदियं कप्पाणमसंखेजाणं च समयसंखसमं । धुवहारेणवहरिदे होदि हु उक्कस्सयं दवं ॥ ४५३ ॥ तद्वितीयं कल्पानामसंख्येयानां च समयसंख्यासमम् । ध्रुवहारेणावहृते भवति हि उत्कृष्टकं द्रव्यम् ॥ ४५३ ॥
अर्थ - असंख्यात कल्पों के जितने समय हैं उतनी वार विपुलमतिके द्वितीय द्रव्यमें ध्रुवहारका भाग देनेसे विपुलमतिके उत्कृष्ट द्रव्यका प्रमाण निकलता है । गाउयपुधत्तमवरं उक्कस्सं होदि जोयणपुधत्तं ।
विउलमदिस्स य अवरं तस्स पुधत्तं वरं खु णरलोयं ॥ ४५४ ॥ गव्यूतिपृथक्त्वमवरमुत्कृष्टं भवति योजनपृथक्त्वम् ।
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विपुलमतेश्च अवरं तस्य पृथक्त्वं वरं खलु नरलोकः ॥ ४५४ ।।
अर्थ — ऋजुमतिका जघन्य क्षेत्र दो तीन कोस और उत्कृष्ट सात आठ योजन है । विपुलमतिका जघन्य क्षेत्र आठ नव योजन तथा उत्कृष्ट मनुष्यलोकप्रमाण है । रोएत्तिय वयणं विक्खंभणियामयं ण वट्टस्स । जम्हा तग्घणपदरं मणपज्जवखेत्तमुद्दिहं ॥ ४५५ ॥ नरलोक इति च वचनं विष्कम्भनियामकं न वृत्तस्य ।
यस्मात् तद्ब्रूनप्रतरं मनः पर्ययक्षेत्रमुद्दिष्टम् ॥ ४५५ ॥
अर्थ – मनःपर्ययके उत्कृष्ट क्षेत्रका प्रमाण जो नरलोकप्रमाण कहा है सो नरलोक इस शब्दसे मनुष्यलोकका विष्कम्भ ग्रहण करना चाहिये नकि वृत्त; क्योंकि दूसरे के द्वारा चिंतित और मानुषोत्तर पर्वत के बाहर स्थित पदार्थको भी विपुलमति जानता है; क्योंकि मनःपर्यय ज्ञानका उत्कृष्ट क्षेत्र समचतुरस्र घनप्रतररूप पैतालीस लाख योजनप्रमाण है । दुगतिगभवा हु अवरं सत्तट्टभवा हवंति उक्कस्सं ।
अडणवभवा हु अवरमसंखेजं विउलउक्कस्सं ॥ ४५६ ॥
द्विकत्रिकभवा हि अवरं सप्ताष्ट्रभवा भवन्ति उत्कृष्टम् । अष्टनवभवा हि अवरमसंख्येयं विपुलोत्कृष्टम् ॥ अर्थ — कालकी अपेक्षासे ऋजुमतिका विषयभूत जघन्य उत्कृष्ट सात आठ भव, तथा विपुलमतिका जघन्य आठ नौ असंख्यातमे भागप्रमाण है ।
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४५६ ॥
काल दो तीन भव और भव और उत्कृष्ट पल्यके