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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालाय जात्यविनाभावित्रसस्थावरोदयजो भवेत् कायः ।
स जिनमते भणितः पृथ्वीकायादिषडूभेदः ॥ १८०॥ __ अर्थ-जातिनामकर्मके अविनाभावी त्रस और स्थावर नामकर्मके उदयसे होनेवाली
आत्माकी पर्यायको जिनमलमें काय कहते हैं । इसके छह भेद हैं, पृथिवी जल अमि वायु वनस्पति और त्रस । . पांच स्थावरोंमेंसे वनस्पतिको छोड़कर बाकी पृथिवी आदि चार स्थावरोंकी उत्पत्तिका कारण बताते हैं।
पुढवीआऊतेऊवाऊकम्मोदयेण तत्थेव । . णियवण्णचउक्कजुदो ताणं देहो हवे णियमा ॥ १८१ ॥
पृथिव्यप्तेजोवायुकर्मोदयेन तत्रैव ।।
निजवर्णचतुष्कयुतस्तेषां देहो भवेनियमात् ॥ १८१ ॥ अर्थ-पृथिवी अप् (जल) तेज (अग्नि) वायु इनका शरीर, नियमसे अपने २ पृथिवी आदि नामकर्मके उदयसे, अपने २ योग्य रूप रस गंध स्पर्शसे युक्त पृथिवी आदिकमें ही बनता है । भावार्थ-पृथिवी आदि नामकर्मके उदयसे पृथिवीकायिकादि जीवोंके अपने २ योग्य रूप रस गंध स्पर्शसे युक्त पृथिवी आदि पुद्गलस्कन्ध ही शरीररूप परिणत होजाते हैं । शरीरके भेद और उनके लक्षण बताते हैं ।
बादरसुहुमुदयेण य बादरसुहुमा हवंति तदेहा । घादसरीरं थूलं अघाददेहं हवे सुहुमं ॥ १८२ ॥
बादरसूक्ष्मोदयेन च बादरसूक्ष्मा भवन्ति तदेहाः ।
घातशरीरं स्थूलमघातदेहं भवेत् सूक्ष्मम् ॥ १८२ ॥ अर्थ-बादर नामकर्मके उदयसे बादर और सूक्ष्म नामकर्मके उदयसे सूक्ष्म शरीर होता है । जो शरीर दूसरेको रोकनेवाला हो अथवा जो दूसरेसे रुके उसको बादर (स्थूल ) कहते हैं । और जो दूसरेको न तो रोके और न स्वयं दूसरेसे रुके उसको सूक्ष्म शरीर कहते हैं। शरीरका प्रमाण बताते हैं ।
तदेहमंगुलस्स असंखभागस्स बिंदमाणं तु । आधारे थूला ओ सवत्थ णिरंतरा सुहुमा ॥ १८३ ॥ तदेहमङ्गुलस्यासंख्यभागस्य वृन्दमानं तु । आधारे स्थूलाः ओ सर्वत्र निरन्तराः सूक्ष्माः ॥ १८३ ॥
१ इस गाथामें “ ओ" शिष्यसम्बोधनके लिये आया है।
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