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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम्। वाले तृतीयस्थानमें केवल देव आयुका बंध होता है । अन्तकी तीन शुभ लेश्यावाले चौथे भेदके कुछ स्थानोंमें देवायुका बन्ध होता है और कुछ स्थानोंमें आयुका अबन्ध है ।
सुण्णं दुगइगिठाणे जलम्हि सुण्णं असंखभजिदकमा । चउचोदसवीसपदा असंखलोगा हु पत्तेयं ॥ २९४ ॥ शून्यं द्विकैकस्थाने जले शून्यमसंख्यभजितक्रमाः। .
चतुश्चतुर्दशविंशतिपदा असंख्यलोका हि प्रत्येकम् ॥ २९४ ॥ अर्थ-इस हीके (धूलिभेदगतहीके ) पद्म और शुक्ललेश्यावाले पांचमे स्थानमें और केवल शुक्ललेश्यावाले छट्टे स्थानमें आयुका अबन्ध है, तथा जलभेदगत केवल शुक्ललेश्यावाले एक स्थानमें भी आयुका अबन्ध है । इस प्रकार कषायोंके शक्तिकी अपेक्षा चार भेद, लेश्याओंकी अपेक्षा चौदह भेद, आयुके बन्धावन्धकी अपेक्षा वीस भेद हैं । इनमें प्रत्येकके असंख्यात लोक प्रमाण भेद हैं । तथा अपने २ उत्कृष्टसे अपने २ जघन्यपर्यन्त क्रमसे असंख्यातगुणे २ हीन हैं । कषायमार्गणामें तीन गाथाओंद्वारा जीवोंकी संख्या बताते हैं ।
पुह पुह कसायकालो णिरये अंतोमुहुत्तपरिमाणो। लोहादी संखगुणो देवेसु य कोहपहुदीदो ॥ २९५ ॥ पृथक् पृथक् कषायकालः निरये अन्तर्मुहूर्तपरिमाणः।।
लोभादिः संख्यगुणो देवेषु च क्रोधप्रभृतितः ॥ २९५ ॥ अर्थ-नरकमें नारकियोंके लोभादि कषायका काल सामान्यसे अन्तर्मुहूर्त मात्र होनेपर भी पूर्व २ की अपेक्षा उत्तरोत्तर कषायका काल पृथक् २ संख्यातगुणा २ है । और देवोंमें क्रोधादिक लोभपर्यन्त कषायोंका काल सामान्यसे अन्तर्मुहूर्त; किन्तु विशेषरूपसे पूर्व २ की अपेक्षा उत्तरोत्तरका संख्यातगुणा २ काल है । भावार्थ-यद्यपि सामान्यसे प्रत्येक कषायका काल अन्तर्मुहूर्त है, तथापि नारकियोंके जितना लोभका काल है उससे संख्यातगुणा मायाका काल है, और जितना मायाका काल है उससे संख्यातगुणा मानका काल है, मानके कालसे भी संख्यागुणा क्रोधका काल है। किन्तु देवोंमें इससे विपरीत है। अर्थात् जितना कोधका काल है उससे संख्यातगुणा मानका काल है, मानसे संख्यातगुणा मायाका और मायासे संख्यातगुणा लोभका काल है। ...
सबसमासेणवहिदसगसगरासी पुणोवि संगुणिदे । सगसगगुणगारोहिं य सगसगरासीणपरिमाणं ॥ २९६ ॥
सर्वसमासेनावहितस्वकस्वकराशौ पुनरपि संगुणिते । स्वकस्वकगुणकारैश्च स्वकखकराशीनां परिमाणम् ॥ २९६ ॥
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