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गोम्मटसारः।
११७ गुणस्थानपर्यन्त सात गुणस्थानों में होता है; परन्तु इनमें भी जिनका चारित्र उत्तरोत्तर बर्धमान होता है उनहीके होता है । तीन गाथाओंमें दृष्टान्तद्वारा मिथ्याज्ञानोंको स्पष्ट करते हैं ।
विसजंतकूडपंजरबंधादिसु विणुवएसकरणेण ।
जा खलु पवट्टइ मई मइअण्णाणंत्तिणं बेति ॥ ३०२॥ _ विषयत्रकूटपञ्जरबंधादिषु विनोपदेशकरणेन ।
या खलु प्रवर्तते मतिः मत्यज्ञानमिति इदं ब्रुवन्ति ॥ ३०२ ॥ अर्थ-दूसरे के उपदेशके विना जो विष यत्र कूट पंजर तथा बंध आदिको विषयमें जो बुद्धि प्रवृत्त होती है उसको मत्यज्ञान कहते हैं । भावार्थ---जिसके खानेसे जीव मर सके उस द्रव्यको विष कहते हैं । भीतर पैर रखते ही जिसके किवाड़ बन्द होजाय, और जिसके भीतर बकरी आदिको बांधकर सिंह आदिकको पकड़ा जाता है उसको यन्त्र कहते हैं । जिससे मूसे वगैरह पकड़े जाते हैं उसको कूट कहते हैं। रस्सीमें गांठ लगाकर जो जाल बनाया जाता है उसको पंजर कहते हैं । हाथी आदिको पकड़नेके लिये जो गड्ढे आदिक बनाये जाते हैं उनको बंध कहते हैं । इत्यादिक पदार्थों में दूसरेके उपदेशके विना जो बुद्धि प्रवृत्त होती है उसको मत्यज्ञान कहते हैं, क्योंकि उपदेशपूर्वक होनेसे वह ज्ञान श्रुतज्ञान कहा जायगा ।
आभीयमासुरक्खं भारहरामायणादिउवएसा । तुच्छा असाहणीया सुयअण्णाणंति णं बेंति ॥ ३०३ ।।
आभीतमासुरक्षं भारतरामायणाद्यपदेशाः ।
तुच्छा असाधनीया श्रुताज्ञानमिति इदं ब्रुवन्ति ॥ ३०३ ॥ अर्थ-चौरशास्त्र, तिथा हिंसाशास्त्र, भारत, रामायण आदिके परमार्थशून्य अत एव अनादरणीय उपदेशोंको मिथ्या श्रुतज्ञान कहते हैं ।
विबरीयमोहिणाणं खओवसमियं च कम्मबीजं च। वेभंगोत्ति पउच्चइ समत्तणाणीण समयम्हि ॥ ३०४॥
विपरीतमवधिज्ञानं क्षायोपशमिकं च कर्मबीजं च । . विभङ्ग इति प्रोच्यते समाप्तज्ञानिनां समये ।। ३०४ ॥ अर्थ-सर्वज्ञोंके उपदिष्ट आगममें विपरीत अवधि ज्ञानको विभङ्ग कहते हैं । इसके दो भेद हैं, एक क्षायोपशमिक दूसरा भवप्रत्यय । भावार्थ-देव नारकियोंके विपरीत अवधिज्ञानको भवप्रत्यय विभङ्ग कहते हैं, और मनुष्य तथा तिर्यञ्चोंके विपरीत अवधिज्ञानको क्षायोपशमिक विभंग कहते हैं । इस विभङ्गका अन्तरङ्ग कारण मिथ्यात्व आदिक कर्म
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