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गोम्मटसारः।
११५ अर्थ-अपनी २ गतिमें सम्भव जीवराशिमें समस्त कषायोंके उदयकालके जोड़का भाग देनेसे जो लब्ध आवे उसका अपने २ गुणाकारसे गुणन करनेपर अपनी राशिका परिमाण निकलता है । भावार्थ-कल्पना कीजिये कि देवगतिमें देव राशिका प्रमाण १७०० है और कोधादिकके उदयका काल क्रमसे ४, १६, ६४, २५६ है । इस लिये समस्त कषायोदयके कालका जोड़ ३४० हुआ । इसका उक्त देवराशिमें भाग देनेसे लब्ध ५ आते हैं । इस लब्ध राशिका अपने कषायोदयकालसे गुणा करने पर अपनी २ राशिका प्रमाण निकलता है । यदि क्रोधकषायवालोंका प्रमाण निकालना हो तो ४ से गुणा करने पर वीस निकलता है, यदि मानकषायवालोंका प्रमाण निकालना हो तो १६ से गुणा करनेपर ८० प्रमाण निकलता है। इस ही प्रकार आगे भी समझना । जिस तरह यह देवोंकी अङ्कसंदृष्टि कही उस ही तरह नारकियोंकी भी समझना, किन्तु अङ्कसंदृष्टिको ही अर्थसंदृष्टि नहीं समझना । क्रोधादि कषायवाले जीवोंकी संख्या निकालनेका यह क्रम केवल देव तथा नरकगतिमें ही समझना । मनुष्य तथा तिर्यञ्चोंमें कषायवाले जीवोंका प्रमाण बताते हैं।
णरतिरिय लोहमायाकोहो माणो विइंदियादिछ । आवलिअसंखभज्जा सगकालं वा समासेज ॥ २९७ ॥ नरतिरश्चोः लोभमायाक्रोधो मानो द्वीन्द्रियादिवत् ।
आवल्यसंख्यभाज्याः स्वककालं वा समासाद्य ॥ २९७ ॥ अर्थ-जिस प्रकार द्वीन्द्रिय त्रीन्द्रिय चतुरिन्द्रिय तथा पंचेन्द्रिय जीवोंकी संख्या पहले निकाली हैं उसही क्रमसे मनुष्य तथा तिर्यञ्चोंके लोभ माया क्रोध और मानवाले जीवोंका प्रमाण आवली के असंख्यातमे भाग क्रमसे निकालना चाहिये । अथवा अपने २ कालकी अपेक्षासे उक्त कषायवाले जीवोंका प्रमाण निकालना चाहिये । भावार्थ-चारो कषायोंका जितना प्रमाण है उसमें आवली के असंख्यातमे भागका भाग देनेसे जो लब्ध आवे उसके बहुभागको चारों जगह समान रूपसे विभक्त करना और शेष एक भागका "बहुभागे समभागो" इस गाथामें कहे हुए क्रमके अनुसार विभाग करनेसे चारो कषायवालोंका प्रमाण निकलता है । अथवा यदि इतने कालमें इतने जीव रहते हैं तो इतने कालमें कितने रहेंगे इस त्रैराशिक विधानसे भी कषायवालोंका प्रमाण निकलता है ।
इति कषायमार्गणाधिकारः॥ .
क्रमप्राप्त ज्ञानमार्गणाके प्रारम्भमें ज्ञानका निरुक्तिसिद्ध सामान्य लक्षण कहते हैं ।
जाणइ तिकालविसए दवगुणे पज्जए य बहुभेदे । पचक्खं च परोक्खं अणेण णाणेत्ति णं बेति ॥ २९८ ॥
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