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गोम्मटसारः।
१२१ इसका दृष्टान्त दिखाते हैं।
पुक्खरगहणे काले हत्थिस्स य वदणगवयगहणे वा । वत्थंतरचंदस्स य घेणुस्स य बोहणं च हवे ॥३१२॥
पुष्करग्रहणे काले हस्तिनश्च वदनगवयग्रहणे वा।
वस्त्वन्तरचन्द्रस्य च धेनोश्च बोधनं च भवेत् ॥ ३१२ ॥ अर्थ-जलमें डूबे हुए हस्तीकी सूंडको देखकर उस ही समयमें जलमग्न हस्तीका ज्ञान होना, अथवा मुखको देखकर उस ही समय उससे भिन्न किन्तु उसके सदृश चन्द्रमाका ज्ञान होना, अथवा गवयको देखकर उसके सदृश गौका ज्ञान होना । इनको अनिसृत ज्ञान कहते हैं। सामान्य विषय अर्ध विषय और पूर्ण विषयकी अपेक्षासे मतिज्ञानके स्थानोंको गिनाते हैं।
एक्कचउकं चउवीसट्ठावीसं च तिप्पडिं किच्चा । इगिछबारसगुणिदे मदिणाणे होंति ठाणाणि ॥ ३१३ ॥
एकचतुष्कं चतुर्विंशत्यष्टाविंशतिश्च त्रिःप्रतिं कृत्वा ।
एकपडूद्वादशगुणिते मतिज्ञाने भवन्ति स्थानानि ॥३१३ ॥ अर्थ—मतिज्ञान सामान्यकी अपेक्षा एक भेद, अवग्रह ईहा अवाय धारणाकी अपेक्षा चार भेद, पांच इन्द्रिय और छट्टे मनसे अवग्रहादि चारके गुणा करनेकी अपेक्षा चौवीस भेद, अर्थावग्रह व्यञ्जनावग्रहकी अपेक्षासे अट्ठाईस भेद मतिज्ञानके होते हैं । इनको क्रमसे तीन पंक्तियोंमें स्थापन करके एक छह और बारह से यथाक्रमसे गुणा करनेपर मतिज्ञानके सामान्य अर्ध और पूर्ण स्थान होते हैं । भावाथे-विषयसामान्यसे यदि इन चारका गुणा किया जाय तो क्रमसे एक चार चौवीस और अट्ठाईस स्थान होते हैं। और यदि इन चार हीका बहु आदिक छहसे गुणा किया जाय तो मतिज्ञानके अर्ध स्थान होते हैं । और बहु आदिक बारहसे यदि गुणा किया जाय तो पूर्ण स्थान होते हैं । क्रमप्राप्त श्रुत ज्ञानका विशेष वर्णन करनेसे पहले उसका सामान्य लक्षण कहते हैं।
अत्थादो अत्यंतरमुवलंभंतं भणंति सुदणाणं । आभिणिबोहियपुवं णियमेणिह सहजं पमुहं ॥ ३१४ ॥ अर्थादर्थान्तरमुपलभमानं भणन्ति श्रुतज्ञानम् ।
आभिनिबोधिकपूर्व नियमेनेह शब्दजं प्रमुखम् ॥ ३१४ ॥ अर्थ-मतिज्ञानके विषयभूत पदार्थसे भिन्न पदार्थके ज्ञानको श्रुतज्ञान कहते हैं । यह ज्ञान नियमसे मतिज्ञानपूर्वक होता है । इस श्रुतज्ञानके अक्षरात्मक अनक्षरात्मक इस तरह,
गों. १६
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