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गोम्मटसारः। प्रतिपाती देशावधिः अप्रतिपातिनौ भवतः शेषौ अहो ।
मिथ्यात्वमविरमणं न च प्रतिपद्यते चरमद्विके ॥ ३७४ ॥ - अर्थ-देशावधि ज्ञान प्रतिपाती होता है। और परमावधि तथा सर्वावधि अप्रतिपाती होते हैं। तथा परमावधि और सर्वावधिवाले जीव नियमसे मिथ्यात्व और अव्रत अवस्थाको प्राप्त नहीं होते । भावार्थ-सम्यक्त्व और चारित्रसे च्युत होकर मिथ्यात्व और असंयमकी प्राप्तिको प्रतिपात कहते हैं । यह प्रतिपात देशावधिवालेका ही होता है। परमावधि और सर्वावधिवालेका नहीं होता। अवधि ज्ञानका द्रव्यादि चतुष्टयकी अपेक्षासे वर्णन करते हैं ।
दवं खेत्तं कालं भावं पडि रूवि जाणदे ओही। अवरादुक्कस्सोत्ति य वियप्परहिदो दु सबोही ॥ ३७५ ॥ द्रव्यं क्षेत्रं कालं भावं प्रति रूपि जानीते अवधिः ।
अवरादुत्कृष्ट इति च विकल्परहितस्तु सर्वावधिः ॥ ३७५ ॥ अर्थ-जघन्य भेदसे लेकर उत्कष्ट भेदपर्यन्त सब ही अवधि ज्ञान द्रव्य क्षेत्र काल भावकी अपेक्षासे रूपि ( पुद्गल ) द्रव्यको ही जानता है। तथा उसके सम्बन्धसे संसारी जीव द्रव्यको भी जानता है। किन्तु सर्वावधि ज्ञानमें जघन्य उत्कृष्ट आदि भेद नहीं हैं-वह निर्विकल्प है। अवधि ज्ञानके विषयभूत सबसे जघन्य द्रव्यका प्रमाण बताते हैं ।
णोकम्मुरालसंचं मज्झिमजोगज्जियं सविस्सचयं । लोयविभत्तं जाणदि अवरोही दवदो णियमा ॥ ३७६ ॥ नोकौरालसंचयं मध्यमयोगार्जितं सविस्रसोपचयम् ।।
लोकविभक्तं जानाति अवरावधिः द्रव्यतः नियमात् ॥ ३७६ ॥ अर्थ-मध्यम योगके द्वारा संचित विस्रसोपचयसहित नोकर्म औदारिक वर्गणाके संचयमें लोकका भाग देनेसे जितना द्रव्य लब्ध आवे उतनेको नियमसे जघन्य अवधि ज्ञान द्रव्यकी अपेक्षासे जानता है । भावार्थ-विस्रसोपचयसहित और जिसका मध्यम योगके द्वारा संचय हुआ हो ऐसे डेढ़गुणहानिमात्र समयबद्धरूप औदारिक नोकर्मके समूहमें लोकप्रमाणका भाग देनेसे जो द्रव्य लब्ध आवे उतने द्रव्यको जघन्य अवधि ज्ञान नियमसे जानता है। .. अवधि ज्ञानके विषयभूत जघन्य क्षेत्रका प्रमाण बताते हैं ।
सुहमणिगोदअपजत्तयस्स जादस्स तदियसमयम्हि । अवरोगाहणमाणं जहण्णयं ओहिरवेत्तं तु ॥ ३७७ ॥
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