Book Title: Gommatsara Jivakand
Author(s): Khubchandra Jain
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

View full book text
Previous | Next

Page 179
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir १५९ गोम्मटसारः। भवणतियाणमधोधो थोवं तिरियेण होदि बहुगं तु । उड्डेण भवणवासी सुरगिरिसिहरोत्ति पस्संति ॥ ४२८ ॥ भवनत्रिकाणामधोऽधः स्तोकं तिरश्चा भवति बहुकं तु । ऊर्बेन भवनवासिनः सुरगिरिशिखरान्तं पश्यन्ति ॥ ४२८ ॥ अर्थ-भवनवासी व्यन्तर ज्योतिषी इनकी अवधिका क्षेत्र नीचे २ कम होता है और तिर्यग् रूपसे अधिक होता है । तथा भवनवासी देव अपने अवस्थित स्थानसे सुरगिरिके ( मेरुके ) शिखरपर्यन्त अवधिदर्शनके द्वारा देखते हैं। सक्कीसाणा पढमं बिदियं तु सणकुमारमाहिंदा । तदियं तु बम्हलांतव सुक्कसहस्सारया तुरियं ॥ ४२९ ॥ शक्रैशानाः प्रथमं द्वितीयं तु सनत्कुमारमाहेन्द्राः । तृतीयं तु ब्रह्मलान्तवाः शुक्रसहस्रारकाः तुरियम् ॥ ४२९ ॥ अर्थ-सौधर्म और ईशान वर्गके देव अवधिके द्वारा प्रथम भूमिपर्यन्त देखते हैं। सनत्कुमार माहेन्द्र वर्गके देव दूसरी पृथ्वीतक देखते हैं । ब्रह्म ब्रह्मोत्तर लांतव कापिष्ठ वर्गवाले देव तीसरी भूमि तक देखते हैं । शुक्र महाशुक्र शतार सहस्रार वर्गके देव चौथी भूमि तक देखते हैं। आणदपाणदवासी आरण तह अचुदा य पस्संति । पंचमखिदिपेरंतं छठिं गेवेजगा देवा ॥ ४३० ॥ आनतप्राणतवासिनः आरणास्तथा अच्युताश्च पश्यन्ति । पञ्चमक्षितिपर्यन्तं षष्ठीं अवेयका देवाः ॥ ४३० ॥ अर्थ-आनत प्राणत आरण अच्युत वर्गके देव पांचमी भूमि तक अवधिके द्वारा देखते हैं । और अवेयकवासी देव छट्ठी भूमि तक देखते हैं । सवं च लोयणालिं पस्संति अणुत्तरेसु जे देवा । सक्खेत्ते य सकम्मे रूबगदमणंतभागं च ॥ ४३१ ॥ सर्वां च लोकनाली पश्यन्ति अनुत्तरेषु ये देवाः । ___ स्वक्षेत्रे च स्वकर्मणि रूपगतमनन्तभागं च ॥ ४३१ ॥ अर्थ-अनुत्तरवासी देव सम्पूर्ण लोकनालीको अवधिद्वारा देखते हैं । अवधिके विषयभूत क्षेत्रका जितना प्रदेशप्रचय है उसमें से एक २ कम करते जाना चाहिये और अवधिज्ञानावरण कर्मका जितना द्रव्य है उसमें ध्रुवहारका भाग देते जाना चाहिये । अवधि के क्षेत्ररूप प्रदेशप्रचयमें एक २ प्रदेश कहां तक कम करना चाहिये ? और अवधिज्ञानावरण कर्मरूप द्रव्यमें ध्रुवहारका भाग कहां तक देते जाना चाहिये ? इसीको आगे स्पष्ट करते हैं: For Private And Personal

Loading...

Page Navigation
1 ... 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257 258 259 260 261 262 263 264 265 266 267 268 269 270 271 272 273 274 275 276 277 278 279 280 281 282 283 284 285 286 287 288 289 290 291 292 293 294 295 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305