Book Title: Gommatsara Jivakand
Author(s): Khubchandra Jain
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 170
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । १५० अपेक्षा एक आकाशका प्रदेश बढ़ता है। इस ही क्रमसे एक २ आकाशके प्रदेशकी वृद्धि वहांतक करनी चाहिये कि जहां तक देशावधिका उत्कृष्ट क्षेत्र सर्वलोक हो जाय । आवलिअसंखभागो जहण्णकालो कमेण समयेण । वहृदि देसोहिवरं पलं समऊणयं जाव ॥ ३९९ ॥ आवल्य संख्यभागो जघन्यकालः क्रमेण समयेन । वर्धते देशावधिवरं पल्यं समयोनकं यावत् ॥ ३९९ ॥ अर्थ - जघन्य देशावधिके विषयभूत कालका प्रमाण आवलीका असंख्यातमा भाग है । इसके ऊपर उत्कृष्ट देशावधिके विषयभूत एक समय कम एक पल्यप्रमाण काल पर्यन्त, ध्रुव तथा अध्रुव वृद्धिरूप क्रमसे एक एक समयकी वृद्धि होती है । उक्त दोनों क्रमोंको उन्नीस काण्डकोंमें कहनेकी इच्छा से आचार्य पहले प्रथम काण्डक उनका ढाई गाथाओं द्वारा वर्णन करते हैं । अंगुल असंखभागं धुवरूवेण य असंखवारं तु । असंखसंखं भागं असंखवारं तु अडवगे ॥ ४०० ॥ अङ्गुलासंख्यभागं ध्रुवरूपेण च असंख्यवारं तु । असंख्यसंख्यं भागमसंख्यवारं तु अध्रुवगे ।। ४०० ॥ अर्थ- - प्रथम काण्डकमें चरम विकल्पपर्यन्त असंख्यात वार घनाङ्गुलके असंख्यातमे भागप्रमाण ध्रुव वृद्धि होती है। और इस ही काण्डकके अन्त पर्यन्त घनाङ्गुलके असंख्यातमे और संख्यातमे भाग प्रमाण ध्रुव वृद्धि भी असंख्यात वार होती है । धुवअवरूवेण य अवरे खेत्तम्हि वडिदे खेत्ते । अरे कालम्हि पुणो एक्केकं वडदे समयं ॥ ४०१ ॥ ध्रुवावरूपेण च अवरे क्षेत्रे वर्द्धिते क्षेत्रे । अवरे काले पुनः एकैको वर्धते समयः || ४०१ ॥ अर्थ — जघन्य देशावधिके विषयभूत क्षेत्रके ऊपर ध्रुवरूपसे अथवा अध्रुव रूपसे क्षेत्रकी वृद्धि होने पर जघन्य कालके ऊपर एक एक समयकी वृद्धि होती है । संखातीदा समया पढमे पवम्मि उभयदो वड्डी । खेत्तं कालं अस्सिय पढमादी कंडये वोच्छं ॥ ४०२ ॥ संख्यातीताः समयाः प्रथमे पर्वे उभयतो वृद्धिः । क्षेत्रं कालमाश्रित्य प्रथमादीनि काण्डकानि वक्ष्ये ॥ ४०२ ॥ अर्थ - प्रथम काण्डक में ध्रुवरूपसे और अध्रुवरूपसे असंख्यात समयकी वृद्धि होती है । इसके आगे प्रथमादि काण्डकोंका क्षेत्र और कालके आश्रयसे वर्णन करते हैं । For Private And Personal

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