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गोम्मटसारः। क्रमप्राप्त अवधि ज्ञानका निरूपण करते हैं ।
अवहीयदित्ति ओही सीमाणाणेत्ति वणियं समये । भवगुणपञ्चयविहियं जमोहिणाणेत्ति णं ति ॥ ३६९ ॥
अवधीयते इत्यवधिः सीमाज्ञानमिति वर्णितं समये ।
भवगुणप्रत्ययविधिकं यद्वधिज्ञानमिति इदं ब्रुवन्ति ॥ ३६९ ॥ अर्थ-द्रव्य क्षेत्र काल भावकी अपेक्षासे जिसके विषयकी सीमा हो उसको अवधि ज्ञान कहते हैं । इस ही लिये परमागममें इसको सीमाज्ञान कहा है । तथा इसके जिनेन्द्रदेवने दो भेद कहे हैं, एक भवप्रत्यय दूसरा गुणप्रत्यय । भावार्थ-नारकादि भवकी अपेक्षासे अवधिज्ञानावरण कर्मका क्षयोपशम होकर जो अवधिज्ञान हो उसको भवप्रत्यय अवधि कहते हैं । जो सम्यग्दर्शनादि कारणोंकी अपेक्षासे अवधिज्ञानावरण कर्मका क्षयोपशम होकर अवधिज्ञान होता है उसको गुणप्रत्यय अवधि कहते हैं । इसके विषयको परिमित होनेसे इस ज्ञानको अवधिज्ञान अथवा सीमाज्ञान कहते हैं । यद्यपि दूसरे मतिज्ञानादिके विषयकी भी सामान्यसे सीमा है, इसलिये दूसरे ज्ञानोंको भी अवधिज्ञान कहना चाहिये; तथापि समभिरूढनयकी अपेक्षासे ज्ञानविशेषको ही अवधि ज्ञान कहते हैं। दोनोंप्रकारके अवधि ज्ञानका खामी तथा खरूप बताते हैं।
भवपञ्चइगो सुरणिरयाणं तित्थेवि सवअंगुत्थो। गुणपञ्चइगो णरतिरियाणं संखादिचिह्नभवो ॥ ३७० ॥ भवप्रत्ययकं सुरनारकाणां तीर्थेऽपि सर्वाङ्गोत्थम् ।
गुणप्रत्ययकं नरतिरश्चां संखादिचिह्नभवम् ॥ ३७० ॥ अर्थ-भवप्रत्यय अवधिज्ञान देव नारकी तथा तीर्थंकरोंके होता है। और यह ज्ञान सम्पूर्ण अङ्गसे उत्पन्न होता है। गुणप्रत्यय अवधिज्ञान पर्याप्त मनुष्य तथा संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंचोंके भी होता है । और यह ज्ञान शंखादि चिह्नोंसे होता है । भावार्थ-नाभिके ऊपर शंख पद्म वज्र खस्तिक कलश आदि जो शुभ चिह्न होते हैं; उस जगह के आत्मप्रदेशोंमें होनेवाले अवधिज्ञानावरण कर्मके क्षयोपशमसे गुणप्रत्यय अवधिज्ञान होता है। किन्तु भवप्रत्यय अवधि सम्पूर्ण आत्मप्रदेशोंसे होता है ।
उत्तरार्धमें प्रकारान्तरसे सामान्य अवधिक तथा पूर्वार्धमें गुणप्रत्यय अवधिके भेदोंको गिनाते हैं।
गुणपञ्चइगो छद्धा अणुगावट्ठिदपवड्डमाणिदरा । देसोही परमोही सबोहित्ति य तिधा ओही ॥ ३७१ ॥
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