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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम्। एकट्ट च च य छस्सत्तयं च च य सुण्णसत्ततियसत्ता। सुण्णं णव पण पंच य एक छक्केकगो य पणगं च ॥ ३५३ ॥ एकाष्ट च च च षट्सप्तकं च च च शून्यसप्तत्रिकसप्त ।
शून्यं नव पञ्च पञ्च च एकं षट्कैककश्च पञ्चकं च ॥ ३५३ ॥ . अर्थ-परस्पर गुणा करनेसे उत्पन्न होनेवाले अक्षरोंका प्रमाण यह है । एक आठ चार चार छह सात चार चार शून्य सात तीन सात शून्य नव पांच पांच एक छह एक पांच । भावार्थ-१८४४६७४४०७३७०९५५१६१५ इतने अङ्गप्रविष्ट और अङ्गबाह्य श्रुतके समस्त अपुनरुक्त अक्षर हैं । पुनरुक्त अक्षरों की संख्याका नियम नहीं है। इन अक्षरों से अङ्गप्रविष्ट और अङ्गबाह्य श्रुतके अक्षरोंका विभाग करते हैं ।
मज्झिमपदक्खरवहिदवण्णा ते अंगपुगपदाणि । सेसक्खरसंखा ओ पइण्णयाणं पमाणं तु ॥ ३५४ ॥ मध्यमपदाक्षरावहितवर्णास्ते अङ्गपूर्वगपदानि ।
शेषाक्षरसंख्या अहो प्रकीर्णकानां प्रमाणं तु ॥ ३५४ ॥ अर्थ-मध्यमपदके अक्षरोंका जो प्रमाण है उसका समस्त अक्षरोंके प्रमाणमें भाग देनेसे जो लब्ध आवे उतने अङ्ग और पूर्वगत मध्यम पद होते हैं। शेष जितने अक्षर रहें उतना अङ्गबाह्य अक्षरोंका प्रमाण है। भावाथे--पहले मध्यम पदके अक्षरोंका प्रमाण बताया है कि एक मध्यम पदमें सोलहसौ चौंतीस करोड़ तिरासी लाख सात हजार आठसौ अठासी अक्षर होते हैं । जब इतने अक्षरोंका एक पद होता है तब समस्त अक्षरोंके कितने पद होंगे इस तरह त्रैराशिक करनेसे--अर्थात् फलराशि ( एक मध्यम पद ) और इच्छाराशिका (समस्त अक्षरोंका) परस्पर गुणा कर उसमें प्रमाण राशिका (एक मध्यमपदके समस्त अक्षरोंके प्रमाणका ) भाग देनेसे जो लब्ध आवे वह समस्त मध्यम पदोंका प्रमाण है । इन समस्त मध्यम पदोंके जितने अक्षर हुए वे अङ्गप्रविष्ट अक्षर हैं और जो शेष अक्षर रहे वे अङ्गबाह्य अक्षर हैं। तेरह गाथाओंमें अङ्गोंके और पूर्वोके पदोंकी संख्या बताते हैं।
आयारे सुद्दयडे ठाणे समवायणामगे अंगे। तत्तो बिक्खापण्णत्तीए णाहस्स धम्मकहा ॥ ३५५ ॥ तो वासयअज्झयणे अंतयडे गुत्तरोबवाददसे । पण्हाणं वायरणे विवायसुत्ते य पदसंखा ॥ ३५६ ॥
आचारे सूत्रकृते स्थाने समवायनामके अङ्गे । ततो व्याख्याप्रज्ञप्तौ नाथस्य धर्मकथायां ॥ ३५५ ॥
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