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गोम्मटसारः। अङ्गुलासंख्यातभागे पूर्वगवृद्धिगते तु परवृद्धिः ।
एकं वारं भवति हि पुनः पुनः चरमवृद्धिरिति ॥ ३२५॥ अर्थ-सूच्यङ्गुलके असंख्यातमे भागप्रमाण पूर्व वृद्धि होनेपर एक वार उत्तर वृद्धि होती है। यह नियम अंतकी वृद्धि पर्यन्त समझना चाहिये । भावार्थ-सूच्यंगुलके असंख्यातमे भागप्रमाण अनन्तभागवृद्धि होनेपर एक वार असंख्यातभागवृद्धि होती है, इसके अनन्तर सूच्यङ्गुलके असंख्यातमे भागप्रमाण अनन्तभागवृद्धि होनेपर फिर एकवार असंख्यातभागवृद्धि होती है । इस क्रमसे असंख्यातभागवृद्धि भी जब सूच्यंगुलके असंख्यातमे भागप्रमाण होजाय तब सूच्यंगुलके असंख्यातमे भागप्रमाण अनन्तभागवृद्धि होनेपर एक वार संख्यातभागवृद्धि होती है । इस ही तरह अन्तकी वृद्धिपर्यन्त जानना ।
आदिमछट्ठाणम्हि य पंच य वड्डी हवंति सेसेसु । छबड्डीओ होति हु सरिसा सवत्थ पदसंखा ॥ ३२६ ॥
आदिमषटूस्थाने च पञ्च च वृद्धयो भवन्ति शेषेषु ।
षड्वृद्धयो भवन्ति हि सदृशा सर्वत्र पदसंख्या ॥ ३२६ ॥ अर्थ-असंख्यातलोकप्रमाण षट्स्थानोंमेसे प्रथम षट्स्थानमें पांच ही वृद्धि होती हैं, अष्टाङ्क वृद्धि नहीं होती । शेष सम्पूर्ण षट्स्थानोंमें अष्टाङ्कसहित छहू वृद्धि होती हैं। सूच्यङ्गुलका असंख्यातमा भाग अवस्थित है इसलिये पदोंकी संख्या सब जगह सदृश ही समझनी चाहिये। प्रथम षट्स्थानमें अष्टाङ्कवृद्धि क्यों नहीं होती ? इसका हेतु लिखते हैं।
छट्ठाणाणं आदी अट्टकं होदि चरिममुवंकं । जम्हा जहण्णणाणं अलुक होदि जिणदिढें ॥३२७॥ षट्स्थानानामादिरष्टाकं भवति चरममुर्वकम् ।
यस्माजघन्यज्ञानमष्टाकं भवति जिनदृष्टम् ॥ ३२७ ॥ अर्थ-सम्पूर्ण षट्रस्थानोंमें आदिके स्थानको अष्टाङ्क और अन्तके स्थानको उर्वङ्क कहते हैं; क्योंकि जघन्य पर्यय ज्ञान भी अगुरुलघु गुणके अविभागप्रतिच्छेदोंकी अपेक्षा अष्टाङ्क हो सकता है ऐसा जिनेन्द्रदेवने प्रत्यक्ष देखा है।
एकं खलु अष्टकं सत्तंकं कंडयं तदो हेट्ठा।। रूवहियकंडएण य गुणिदकमा जावमुद्रकं ॥ ३२८ ॥
एकं खलु अष्टाकं सप्ताङ्कं काण्डकं ततोऽधः।
रूपाधिककाण्डकेन च गुणितक्रमा यावदुर्वङ्कः ॥ ३२८ ॥ अर्थ-एक षट्स्थानमें एक ही अष्टाङ्क होता है । और सप्ताङ्क सूच्यंगुलके असंख्या
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