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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् ।
लब्ध्यक्षर कहते हैं; क्योंकि इस क्षयोपशमका कभी विनाश नहीं होता, कमसे कम इतना
क्षयोपशम तो जीवके रहता ही है ।
पर्यायसमास ज्ञानका निरूपण करते हैं ।
अवरुवरिम्मि अणतमसंखं संखं च भागवड्डीए । संखमसंखमतं गुणवडी होंति हु कमेण ॥ ३२२ ॥
अवरोपरि अनन्तमसंख्यं संख्यं च भागवृद्धयः ।
संख्यमसंख्यमनन्तं गुणवृद्धयों भवन्ति हि क्रमेण ॥ ३२२ ॥ अर्थ — सर्वजघन्य पर्याय ज्ञानके ऊपर क्रमसे अनन्तभागवृद्धि असंख्यात भागवृद्धि संख्यातभागवृद्धि संख्यातगुणवृद्धि असंख्यातगुणवृद्धि अनन्तगुणवृद्धि ये छह वृद्धि होती हैं । जीवाणं च य रासी असंखलोगा वरं खु संखेज्जं । भागगुणम्हि य कमसो अवट्टिदा होंति छट्टाणा ॥ ३२३ ॥
जीवानां च च राशिः असंख्यलोका वरं खलु संख्यातम् ।
भागगुणयोश्च क्रमशः अवस्थिता भवन्ति षट्स्थाने ॥ ३२३ ॥
अर्थ – समस्त जीवराशि, असंख्यात लोकप्रमाण राशि, उत्कृष्ट संख्यात राशि ये तीन राशि, पूर्वोक्त अनन्तभागवृद्धि आदि छह स्थानों में भागहार अथवा गुणाकारकी क्रमसे अवस्थित राशि हैं । भावार्थ - अनन्तभागवृद्धि और अनन्तगुणवृद्धि इनका भागहार और गुणाकार समस्त जीवराशिप्रमाण अवस्थित है । असंख्यात भागवृद्धि और असंख्यातगुणवृद्धि इनका भागहार और गुणाकार असंख्यात लोकप्रमाण अवस्थित है । संख्यात भागवृद्धि संख्यातगुणवृद्धि इनका भागहार और गुणाकार उत्कृष्ट संख्यात अवस्थित है । लाघवके लिये छह वृद्धियोंकी छह संज्ञा रखते हैं ।
उच्चकं चउरंकं पणछस्सत्तंक अटुअकं च ।
छड्डी सण्णा कमसो संदिठ्ठिकरणटुं ॥ ३२४ ॥
उर्वङ्कश्चतुरङ्कः पञ्चषट्सप्ताङ्कः अष्टाङ्कश्च ।
षड्वृद्धीनां संज्ञा क्रमशः संदृष्टिकरणार्थम् ॥ ३२४ ॥
अर्थ — लघुरूप संदृष्टिकेलिये क्रमसे छह वृद्धियोंकी ये छह संज्ञा हैं । अनन्तभागवृद्धिकी उर्वङ्क, असंख्यातभागवृद्धिकी चतुरङ्क, संख्यात भागवृद्धि की पञ्चाङ्क, संख्यातगुणवृद्धिकी षडङ्क, असंख्यातगुणवृद्धि की सप्ताङ्क, अनन्तगुणवृद्धिकी अष्टाङ्क
अङ्गुलअसंखभागे पुगवट्टीगदे दु परवही ।
एकं वारं होदि हु पुणो पुणो चरिमउडित्ती ॥ ३२५ ॥
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