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गोम्मटसार ।
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प्रक्षेपक प्रक्षेपक प्रक्षपके तथा पिशूलि इन तीन वृद्धियोंको साधिक जघन्य के ऊपर करने से साधिक जघन्यका दूना प्रमाण होता है ।
एवं असंखलोगा अणक्खरप्पे हवंति छट्टाणा ।
ते पजायसमासा अक्खरगं उवरि वोच्छामि ॥ ३३१
एवमसंख्यलोका अनक्षरात्मके भवन्ति षट्स्थानानि ।
ते पर्यायसमासा अक्षरगमुपरि वक्ष्यामि ॥ ३३१ ॥
अर्थाक्षर श्रुतज्ञानको बताते हैं ।
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अर्थ — इस प्रकार से अनक्षरात्मक श्रुत ज्ञानके असंख्यात लोकप्रमाण षट्स्थान होते हैं । ये सब ही पर्यायसमास ज्ञानके भेद हैं । अब इसके आगे अक्षरात्मक श्रुत ज्ञानका
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वर्णन करेंगे ।
चरिमुवंकेणवहिदअत्थक्खरगुणिदचरिममुवंकं ।
अत्थक्खरं तु णाणं होदित्ति जिणेहिं णिद्दिहं ॥ ३३२ ॥
चरमोर्वकेणावहितार्थाक्षरगुणितचरमोर्वङ्कम् ।
अर्थाक्षरं तु ज्ञानं भवतीति जिनैर्निर्दिष्टम् ॥ ३३२ ॥
अर्थ - अन्तके उर्वकका अर्थाक्षरसमूह में भाग देनेसे जो लब्ध आवे उसको अन्तके उसे गुणा करनेपर अर्थाक्षर ज्ञानका प्रमाण होता है ऐसा जिनेन्द्र देवने कहा है । भावार्थ - असंख्यात - लोकप्रमाण षट्स्थानों में अन्तके षट्स्थानकी अन्तिम उर्वक - वृद्धि से युक्त उत्कृष्ट पर्यायसमास ज्ञानसे अनन्तगुणा अर्थाक्षर ज्ञान होता है । यह अर्थाक्षर सम्पूर्ण श्रुतकेवल ज्ञानरूप है । इसमें एक कम एकट्ठीका भाग देनेसे जो लब्ध आवे उतना अक्षर ज्ञानका प्रमाण होता है ।
श्रुतनिबद्ध विषयका प्रमाण बताते हैं ।
पण्णवणिजा भावा अनंतभागो दु अणभिलप्पाणं । पण्णवणिजाणं पुण अनंतभागो सुदणिवद्धो ॥ ३३३ ॥
प्रज्ञापनीया भावा अनन्तभागस्तु अनभिलाप्यानाम् ।
प्रज्ञापनीयानां पुनः अनन्तभागः श्रुतनिबद्धः ॥ ३३३ ॥
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अर्थ — अनभिप्य पदार्थों के अनंतमे भाग प्रमाण प्रज्ञापनीय पदार्थ होते हैं । और प्रज्ञापनीय पदार्थोंके अनन्तमे भाग प्रमाण श्रुतमें निबद्ध हैं । भावार्थ - जो केवल केवलज्ञानके द्वारा जाने जासकते हैं; किन्तु जिनका वचनके द्वारा निरूपण नहीं किया जासकता ऐसे पदार्थ अनन्तानन्त हैं । इस तरहके पदार्थोंसे अनन्तमें भाग प्रमाण वे पदार्थ हैं कि
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