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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् ।
जिनका वचनके द्वारा निरूपण होसकता है, उनको प्रज्ञापनीय भाव कहते हैं । जितने प्रज्ञापनीय पदार्थ हैं उनका भी अनंतमा भाग श्रुतमें निरूपित है ।
अक्षरसमास ज्ञान तथा पदज्ञानका स्वरूप बताते हैं । एयक्खरादु उवरिं एगेगेणक्खरेण वडुंतो ।
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संखेजे खलु उड्ढे पदणामं होदि सुदणाणं ॥ ३३४ ॥ एकाक्षरात्तूपरि एकैकेनाक्षरेण वर्धमानाः ।
संख्येये खलु वृद्धे पदनाम भवति श्रुतज्ञानम् ॥ ३३४ ॥
अर्थ — अक्षर ज्ञानके ऊपर क्रमसे एक २ अक्षरकी वृद्धि होते २ जब संख्यात अक्षरोंकी वृद्धि होजाय तब पदनामक श्रुतज्ञान होता है । अक्षर ज्ञानके ऊपर और पदज्ञानके पूर्व तक जितने ज्ञानके विकल्प हैं वे सब अक्षरसमास ज्ञानके भेद हैं । एक पदके अक्षरोंका प्रमाण बताते हैं ।
सोलससयचउतीसा कोडी तियसीदिलक्खयं चेव । सत्तसहस्साट्ठसया अट्ठासीदी य पदवण्णा ॥ ३३५ ॥ षोडशशतचतुस्त्रिंशत्कोट्यः त्र्यशीतिलक्षकं चैव 1
सप्तसहस्राण्यष्टशतानि अष्टाशीतिश्च पदवर्णाः ॥ ३३५ ॥
संघात श्रुतज्ञानको बताते हैं ।
अर्थ – सोलहसौ चौंतीस कोटि तिरासी लाख सात हजार आठसौ अठासी ( १६३४ ८३०७८८८ ) एक पदमें अक्षर होते हैं । भावार्थ — पद तीन तरहके होते हैं, अर्थपद प्रमाण पद् मध्यम पद । इनमें से "सफेद गौको रस्सीसे बांधो" “अग्निको लाओ" इत्यादि अनियत अक्षरों के समूहरूप किसी अर्थविशेषके बोधक वाक्यको अर्थपद कहते हैं । आठ आदिक अक्षरोंके समूहको प्रमाणपद कहते हैं, जैसे श्लोकके एक पादमें आठ अक्षर होते हैं । इस ही तरह दूसरे छन्दों के पदोंमें भी अक्षरोंका न्यूनाधिक प्रमाण होता हैं । परन्तु गाथामें कहे हुए पदके अक्षरोंका प्रमाण सर्वदाकेलिये निश्चित है, इस ही को मध्यमपद कहते हैं ।
एयपदादो उवरिं एगेगेणक्खरेण बह्वंतो ।
संखेज्जसहस्तपदे उड्डे संघादणाम सुदं ॥ ३३६ ॥
एकपदादुपरि एकैकेनाक्षरेण वर्धमानाः ।
संख्यातसहस्रपदे वृद्धे संघातनाम श्रुतम् ॥ ३३६ ॥
अर्थ – एक पदके आगे भी क्रमसे एक २ अक्षरकी वृद्धि होते होते संख्यात हजार पदकी वृद्धि होजाय उसको संघातनामक श्रुत ज्ञान कहते हैं । एक पदके ऊपर और संघा -
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