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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । जानाति त्रिकालविषयान द्रव्यगुणान् पर्यायांश्च बहुभेदान्
प्रत्यक्षं च परोक्षमनेन ज्ञानमिति इदं ब्रुवन्ति ॥ २९८ ॥ अर्थ-जिसके द्वारा जीव त्रिकालविषयक ( भूत भविष्यत् वर्तमान ) समस्त द्रव्य और उनके गुण तथा उनकी अनेक प्रकारकी पर्यायोंको जाने उसको ज्ञान कहते हैं । इसके दो भेद हैं, एक प्रत्यक्ष दूसरा परोक्ष । ज्ञानके भेदोंको दिखाते हुए उनका क्षायोपशमिक और क्षायिकरूपसे विभाग करते हैं।
पंचेव होंति णाणा मदिसुदओहीमणं च केवलयं । खयउवसमिया चउरो केवलणाणं हवे खइयं ॥ २९९ ॥ पञ्चैव भवन्ति ज्ञानानि मतिश्रुतावधिमनश्च केवलम् ।
क्षायोपशमिकानि चत्वारि केवलज्ञानं भवेत् क्षायिकम् ॥ २९९ ॥ अर्थ-ज्ञानके पांच भेद हैं । मति श्रुत अवधि मनःपर्यय तथा केवल । इनमें आदिके चार ज्ञान क्षायोपशमिक हैं, और केवलज्ञान क्षायिक है। मिथ्याज्ञानका कारण और स्वामी बताते हैं।
अण्णाणतियं होदि हु सण्णाणतियं खु मिच्छअणउदये । णवरि विभंगं णाणं पंचिदियसण्णिपुण्णेव ॥ ३०॥
अज्ञानत्रिकं भवति हि सज्ञानत्रिकं खलु मिथ्यात्वानोदये।
नवरि विभङ्गं ज्ञानं पञ्चेन्द्रियसंज्ञिपूर्ण एव ॥ ३०० ॥ अर्थ-आदिके तीन ( मति श्रुत अवधि ) ज्ञान समीचीन भी होते हैं और मिथ्या भी होते हैं। ज्ञानके मिथ्या होनेका अन्तरङ्ग कारण मिथ्यात्व तथा अनन्तानुबन्धी कषायका उदय है । मिथ्या अवधिको विभंग भी कहते हैं । इसमें यह विशेषता है कि यह विभंग ज्ञान संज्ञी पर्याप्तक पंचेन्द्रियके ही होता है। मिश्रज्ञानका कारण और मनःपर्ययज्ञानका खामी बताते हैं ।
मिस्सुदये सम्मिस्सं अण्णाणतियेण णाणतियमेव । संजमविसेससहिए मणपजवणाणमुद्दिडं ॥ ३०१ ॥ मिश्रोदये संमिश्रमज्ञानत्रयेण ज्ञानत्रयमेव ।
संयमविशेषसहिते मनःपर्ययज्ञानमुद्दिष्टम् ॥ ३०१ ॥ अर्थ-मिश्र प्रकृतिके उदयसे आदिके तीन ज्ञानोंमें समीचीनता तथा मिथ्यापना दोनों ही पाये जाते हैं, इसलिये इनको मिश्र ज्ञान कहते हैं । मनःपर्ययज्ञान जिनके विशेष संयम होता है उनहीके होता है । भावार्थ-मनःपर्यय ज्ञान प्रमत्त गुणस्थानसे लेकर क्षीणकषाय
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