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गोम्मटसारः ।
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ही स्थान होता है । पृथ्वीभेदसमान क्रोधमें छह स्थान होते हैं, पहला केवल कृष्णलेश्याका, दूसरा कृष्ण नील लेश्याका, तीसरा कृष्ण नील कपोत लेश्याका, चौथा कृष्ण नील कपोत पीत लेश्याका, पांचमा कृष्ण नील कपोत पीत पद्म लेश्याका, छट्टा कृष्ण नील कपोत पीत पद्म शुक्ललेश्या का । इस ही प्रकार धूलिरेखा समान क्रोधमें भी छह स्थान होते हैं । पहला कृष्णादिक छह लेश्याका, दूसरा कृष्णरहित पांचलेश्याका, तीसरा कृष्ण नीलरहित चारलेश्याका, चौथा कृष्ण नील कपोतरहित अन्तकी तीन शुभ लेश्याओं का, पांचमा पद्म और शुक्ल लेश्याका, छट्ठा केवल शुक्ल लेश्याका । जलरेखा समान क्रोधमें एक शुक्ल लेश्याका स्थान होता है । जिस प्रकार क्रोधके लेश्याओं की अपेक्षा ये चौदह स्थान बताये उस ही तरह मानादिक कषाय में भी चौदह २ भेद समझना चाहिये ।
आयुके बंधा बंधकी अपेक्षासे तीन गाथाओं द्वारा वीस स्थानोंको गिनाते हैं ।
सेलग किन्हे सुण्णं णिरयं च य भूगएगबिट्ठाणे । णिरयं इगिवितिआऊ तिट्ठाणे चारि सेसपदे ॥ २९२ ॥ शैलगकृष्णे शून्यं निरयं च च भूगैकद्विस्थाने । निरयमेकद्वित्र्यायुस्त्रिस्थाने चत्वारि शेषपदे ।। २९२ ॥
अर्थ — शैलगत कृष्णलेश्यामें कुछ स्थान तो ऐसे हैं कि जहांपर आयुबन्ध नहीं होता, इसके अनन्तर कुछ स्थान ऐसे हैं कि जिनमें नरक आयुका बन्ध होता है । इसके बाद पृथ्वीभेदगत पहले और दूसरे स्थानमें नरक आयुका ही बन्ध होता है । इसके भी बाद कृष्ण नील कपोत लेश्याके तीसरे भेदमें ( स्थान में ) कुछ स्थान ऐसे हैं जहां नरक आयुका ही बन्ध होता है, और कुछ स्थान ऐसे हैं जहां नरक तिर्यञ्च दो आयुका बन्ध होसकता है, तथा कुछ स्थान ऐसे हैं जहांपर नरक तिर्यञ्च तथा मनुष्य तीनों ही आयुका बन्ध हो सकता है । शेष तीन स्थानोंमें चारो आयुका बन्ध हो सकता है ।
धूलिगळकट्ठाणे चउराऊतिगदुगं च उवरिल्लं । पणचदुठाणे देवं देवं सुण्णं च तिट्ठाणे ॥ २९३ ॥ धूलिगषट्कस्थाने चतुरायूंषि त्रिकद्विकं चोपरितनम् । पञ्चचतुर्थस्थाने देवं देवं शून्यं च तृतीयस्थाने ॥ २९३ ॥
होता है, इसके अनन्तर कुछ स्थानोंमें नरक कुछ स्थानों में नरक तिर्यञ्चको छोड़कर शेष दो
अर्थ — धूलिभेदगत छहलेश्यावाले प्रथम भेदके कुछ स्थानों में चारो आयुका बन्ध आयुको छोड़कर शेष तीन आयुका और आयुका बन्ध होता है । कृष्णलेश्याको छोड़कर पांचलेश्यावाले दूसरे स्थानमें तथा कृष्ण नीललेश्याको छोड़कर शेष चार लेश्या
गो. १५
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