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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । .... अर्थ-जिनके, खुदको दूसरेको तथा दोनोंको ही बाधा देने और बन्धन करने तथा असंयम करनेमें निमित्तभूत क्रोधादिक कषाय नहीं हैं, तथा जो बाह्य और अभ्यन्तर मलसे रहित हैं ऐसे जीवोंको अकषाय कहते हैं । क्रोधादि कषायोंके शक्तिकी अपेक्षासे स्थान वताते हैं ।
कोहादिकसायाणं चउ चउदसवीस होंति पदसंखा। सत्तीलेस्साआउगवंधाबंधगदभेदेहिं ॥ २८९ ॥ क्रोधादिकषायाणां चत्वारश्चतुर्दशविंशतिः भवन्ति पदसंख्याः ।
शक्तिलेश्याऽऽयुष्कबंधाबंधगतभेदैः ॥ २८९ ॥ __ अर्थ-शक्ति, लेश्या, तथा आयुके बंधाबन्ध गत भेदोंकी अपेक्षासे क्रोधादिक कषायोंके क्रमसे चार चौदह और वीस स्थान होते हैं । भावार्थ-शक्तिकी अपेक्षा चार, लेश्याकी अपेक्षा चौदह और आयुके बन्धाबन्धकी अपेक्षा क्रोधादि कषायोंके वीस स्थान होते हैं । शक्तिकी अपेक्षासे होनेवाले चार स्थानोंको गिनाते हैं ।
सिलसेलवेणुमूलक्किमिरायादी कमेण चत्तारि । कोहादिकसायाणं सत्तिं पडि होंति णियमेण ॥ २९॥ शिलाशैलवेणुमूलक्रिमिरागादीनि क्रमेण चत्वारि ।
क्रोधादिकषायाणां शक्तिं प्रति भवन्ति नियमेन ॥ २९० ॥ अर्थ-शिलाभेद आदिक चार प्रकारका क्रोध, शैलसमान आदिक चार प्रकारका मान, वेणु ( वांस ) मूलके समान आदिक चार तरहकी माया, क्रिमिरागके समान आदिक चार प्रकारका लोभ, इस तरह क्रोधादिक कषायोंके उक्त नियमके अनुसार क्रमसे शक्तिकी अपेक्षा चार २ स्थान हैं। लेश्याकी अपेक्षा होनेवाले चौदह स्थानोंको गिनाते हैं ।
किण्हं सिलासमाणे किण्हादी छकमेण भूमिम्हि । छक्कादी सुक्कोत्ति य धूलिम्मि जलम्मि सुक्केका ॥ २९१ ॥ कृष्णा शिलासमाने कृष्णादयः षट् क्रमेण भूमौ ।
षट्कादिः शुक्लेति च धूलौ जले शुक्लैका ॥ २९१ ॥ अर्थ-शिलासमान क्रोधमें केवल कृष्ण लेश्याकी अपेक्षासे एक ही स्थान होता है । पृथ्वीसमान क्रोधमें कृष्ण आदिक लेश्याकी अपेक्षा छह स्थान हैं । धूलिसमान क्रोधमें छह लेश्यासे लेकर शुक्ललेश्यापर्यन्त छह स्थान होते हैं। और जलसमान क्रोधमें केवल एक शुक्ललेश्या ही होती है । भावार्थ-शिलासमान क्रोधमें केवल कृष्णलेश्याका एक
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