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गोम्मटसार।
१११ नरक तिर्यञ्च मनुष्य और देवगतिमें लेजाती है । भावार्थ-मायाके ये चार भेद कुटिलताकी अपेक्षासे हैं । जितनी अधिक कुटिलता इसमें पाई जाय उतनी ही उत्कृष्ट माया कही जाती है, और वह उक्त क्रमानुसार गतियोंकी उत्पादक होती है ।
किमिरायचकतणुमलहरिहराएण सरिसओ लोहो। णारयतिरिक्खमाणुसदेवेसुप्पायओ कमसो ॥ २८६ ॥ क्रिमिरागचक्रतनुमलहरिद्रारागेण सदृशो लोभः।
नारकतिर्यग्मानुषदेवेषुत्पादकः क्रमशः ॥ २८६ ॥ अर्थ-लोभ कषाय भी चार प्रकारका है । क्रिमिरागके समान, चक्रमल( रथ आदिकके पहियोंके भीतरकी ओंगन ) के समान, शरीरके मलके समान, हल्दीके रंगके समान । यह भी क्रमसे नरक तिर्यश्च मनुष्य देवगतिका उत्पादक है । भावार्थ-जिस प्रकार किरिमिजीका रंग अत्यंत गाढ़ होता है बड़ी ही मुश्किलसे छूटता है। उसी प्रकार जो लोभ सबसे जादे गाढ़ हो उसको किरिमिजी के समान कहते हैं। इससे जो जल्दी २ छूटनेवाले हैं उनको क्रमसे ओंगन, शरीरमल, हल्दी के रंगके समान कहते हैं,
नरकादि गतिमें उत्पत्तिके प्रथम समयमें बहुलताकी अपेक्षासे क्रोधादिकके उदयका नियम बताते हैं ।
णारयतिरिक्खणरसुरगईसु उप्पण्णपढमकालम्हि । कोहो माया माणो लोहुदओ अणियमो वापि ॥ २८७ ॥ नारकतिर्यग्नरसुरगतिपूत्पन्नप्रथमकाले ।
क्रोधो माया मानो लोभोदयः अनियमो वापि ॥ २८७ ॥ अर्थ-नरक तिर्यञ्च मनुष्य तथा देवगतिमें उत्पन्न होनेके प्रथम समयमें क्रमसे क्रोध माया मान और लोभका उदय होता है । अथवा अनियम भी है । भावार्थ-नरकगतिमें उत्पन्न होनेवाले जीवके प्रथम समयमें क्रोधका उदय होता है । परन्तु किसी २ आचार्यका मत है कि ऐसा नियम नहीं हैं। इस ही प्रकार तिर्यग्गतिमें उत्पन्न होनेवालेके प्रथम समयमें किसी आचार्यके मतसे नियमसे माया कषायका उदय होता है । और मनुष्यगतिके प्रथम समयमें मानका तथा देवगतिके प्रथम समयमें लोभ कषायका उदय होता है। कषायरहित जीवोंको वताते है ।
अप्पपरोभयबाधणबंधासंजमणिमित्तकोहादी। जर्सि णत्थि कसाया अमला अकसाइणो जीवा ॥ २८८ ॥
आत्मपरोभयबाधनबन्धासंयमनिमित्तक्रोधादयः । येषां न सन्ति कषाया अमला अकषायिणो जीवाः ॥ २८८॥
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