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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir रायचन्द्रजैनशास्त्रमालाय जात्यविनाभावित्रसस्थावरोदयजो भवेत् कायः । स जिनमते भणितः पृथ्वीकायादिषडूभेदः ॥ १८०॥ __ अर्थ-जातिनामकर्मके अविनाभावी त्रस और स्थावर नामकर्मके उदयसे होनेवाली आत्माकी पर्यायको जिनमलमें काय कहते हैं । इसके छह भेद हैं, पृथिवी जल अमि वायु वनस्पति और त्रस । . पांच स्थावरोंमेंसे वनस्पतिको छोड़कर बाकी पृथिवी आदि चार स्थावरोंकी उत्पत्तिका कारण बताते हैं। पुढवीआऊतेऊवाऊकम्मोदयेण तत्थेव । . णियवण्णचउक्कजुदो ताणं देहो हवे णियमा ॥ १८१ ॥ पृथिव्यप्तेजोवायुकर्मोदयेन तत्रैव ।। निजवर्णचतुष्कयुतस्तेषां देहो भवेनियमात् ॥ १८१ ॥ अर्थ-पृथिवी अप् (जल) तेज (अग्नि) वायु इनका शरीर, नियमसे अपने २ पृथिवी आदि नामकर्मके उदयसे, अपने २ योग्य रूप रस गंध स्पर्शसे युक्त पृथिवी आदिकमें ही बनता है । भावार्थ-पृथिवी आदि नामकर्मके उदयसे पृथिवीकायिकादि जीवोंके अपने २ योग्य रूप रस गंध स्पर्शसे युक्त पृथिवी आदि पुद्गलस्कन्ध ही शरीररूप परिणत होजाते हैं । शरीरके भेद और उनके लक्षण बताते हैं । बादरसुहुमुदयेण य बादरसुहुमा हवंति तदेहा । घादसरीरं थूलं अघाददेहं हवे सुहुमं ॥ १८२ ॥ बादरसूक्ष्मोदयेन च बादरसूक्ष्मा भवन्ति तदेहाः । घातशरीरं स्थूलमघातदेहं भवेत् सूक्ष्मम् ॥ १८२ ॥ अर्थ-बादर नामकर्मके उदयसे बादर और सूक्ष्म नामकर्मके उदयसे सूक्ष्म शरीर होता है । जो शरीर दूसरेको रोकनेवाला हो अथवा जो दूसरेसे रुके उसको बादर (स्थूल ) कहते हैं । और जो दूसरेको न तो रोके और न स्वयं दूसरेसे रुके उसको सूक्ष्म शरीर कहते हैं। शरीरका प्रमाण बताते हैं । तदेहमंगुलस्स असंखभागस्स बिंदमाणं तु । आधारे थूला ओ सवत्थ णिरंतरा सुहुमा ॥ १८३ ॥ तदेहमङ्गुलस्यासंख्यभागस्य वृन्दमानं तु । आधारे स्थूलाः ओ सर्वत्र निरन्तराः सूक्ष्माः ॥ १८३ ॥ १ इस गाथामें “ ओ" शिष्यसम्बोधनके लिये आया है। For Private And Personal
SR No.010692
Book TitleGommatsara Jivakand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1916
Total Pages305
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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