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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । उत्पत्तिके समयसे अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त वैक्रियिक शरीरसे जब काण शरीरकी सहायतासे योग होता है तब उस योगको वैक्रियिक मिश्र काययोग कहते हैं। आहारक काययोगका निरूपण करते हैं।
आहारस्सुदयेण य पमत्तविरदस्स होदि आहारं । असंजमपरिहरणटुं संदेहविणासणटुं च ॥ २३४ ॥
आहारस्योदयेन च प्रमत्तविरतस्य भवति आहारकम् ।
असंयमपरिहरणार्थं संदेहविनाशनार्थं च ॥ २३४ ॥ अर्थ-असंयमके परिहार तथा संदेहको दूर करनेकेलिये छटे गुणस्थानवर्ती मुनिके आहारकशरीरनामकर्मके उदयसे' आहारक शरीर होता है ।।
णियखेत्ते केवलिदुगविरहे णिक्कमणपहुदिकल्लाणे । परखेत्ते संवित्ते जिणजिणघरवंदणटुं च ॥ २३५ ॥ निजक्षेत्रे केवलिद्विकविरहे निःक्रमणप्रभृतिकल्याणे ।।
परक्षेत्रे संवृत्ते जिनजिनगृहवंदनार्थ च ॥ २३५॥ अर्थ-अपने क्षेत्रमें केवली तथा श्रुतकेवलीका अभाव होनेपर किन्तु दूसरे क्षेत्रमें जहां पर कि औदारिक शरीरसे उस समय पहुंच नहीं सकता, तपकल्याणक आदिके होनेपर, और जिन जिनगृह ( चैत्यालय ) की वन्दनाकेलिये भी आहारक ऋद्धिको प्राप्त छठे गुणस्थानवर्ती मुनिके आहारक शरीर उत्पन्न होता है।
उत्तमअंगम्हि हवे धादुविहीणं सुहं असंहणणं । सुहसंठाणं धवलं हत्थपमाणं पसत्थुदयं ॥ २३६ ॥ उत्तमाङ्गे भवेत् धातुविहीनं शुभमसंहननम् ।
शुभसंस्थानं धवलं हस्तप्रमाणं प्रशस्तोदयम् ॥ २३६ ॥ अर्थ-यह आहारक शरीर रसादिक धातु और संहननसे रहित, समचतुरस्र संस्थानसे युक्त, चन्द्रकांतके समान श्वेत, एक हस्तप्रमाणवाला आहारकशरीरादिक शुभ नामकर्मके उदयसे उत्तम शरीरमें होता है ।
अवाघादी अंतोमुहुत्तकालटिदी जहण्णिदरे । पजत्तीसंपुण्णे मरणंपि कदाचि संभवइ ॥ २३७ ॥
अव्याघाति अन्तर्मुहूर्तकालस्थिती जघन्येतरे।। ___ पर्याप्तिसंपूर्णायां मरणमपि कदाचित् संभवति ॥ २३७ ॥ अर्थ-न तो इस शरीरकेद्वारा किसी दूसरे पदार्थका और न दूसरे पदार्थके द्वारा इस शरीरका ही व्याघात होता है । तथा इसकी जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहूर्त
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