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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । भागप्रमाण विक्रिया शक्तिसे युक्त हैं । और वायुकायिक जितने जीव हैं उनमें पत्यके असंख्यातमे भाग विक्रियाशक्तिसे युक्त हैं।
पल्लासंखेजाहयविंदंगुलगुणिदसेढिमेत्ता हु। वेगुवियपंचक्खा भोगभुमा पुह विगुवंति ॥ २५९ ॥ पल्यासंख्याताहतवृन्दाङ्गुलगुणितश्रेणिमात्रा हि ।
वैगूर्विकपञ्चाक्षा भोगभुमाः पृथक् विगूर्वन्ति ॥ २५९ ॥ अर्थ-पल्पके असंख्यातमे भागसे अभ्यस्त ( गुणित ) घनामुलका जगच्छ्रेणीके साथ गुणा करने पर जो लब्ध आवे उतने ही पर्याप्त पंचेद्रिय तिर्यंचोंमें वैक्रियिक योगके धारक हैं। और भोगभूमिया तिर्यंच तथा मनुष्य तथा कर्मभूमियाओंमें चक्रवर्ती पृथक् विक्रिया करते हैं । भावार्थ-विक्रिया दो प्रकारकी होती हैं, एक पृथक् विक्रिया दूसरी अपृथक् बिक्रिया । जो अपने शरीरके सिवाय दूसरे शरीरादिक बनाना इसको पृथकू विक्रिया कहते हैं । और जो अपने शरीरके ही अनेक आकार बनाना इसको अपृथकू विक्रिया कहते हैं । इन दोनों प्रकारकी विक्रियाके धारक तिर्यंच तथा मनुष्योंकी संख्या ऊपर कही हुई है।
देवेहि सादिरेया तिजोगिणो तेहिं हीण तसपुण्णा । बियजोगिणो तदूणा संसारी एकजोगा हु ॥ २६० ॥
देवैः सातिरेकाः त्रियोगिनस्तै_नाः त्रसपूर्णाः ।
द्वियोगिनस्तदूना संसारिणः एकयोगा हि ॥ २६० ॥ अर्थ-देवोंसे कुछ अधिक त्रियोगियोंका प्रमाण है। पर्याप्त त्रसराशिमेंसे त्रियोगियोंको घटानेपर जो शेष रहे उतना द्वियोगियोंका प्रमाण है । संसारराशिमेंसे द्वियोगी तथा त्रियोगियोंका प्रमाण घटानेसे एकयोगवालोंका प्रमाण निकलता है। भावार्थ-नारकी देव संज्ञिपर्याप्त पंचेन्द्रिय तियेच पर्याप्त मनुष्य इनका जितना प्रमाण है उतना ही त्रियोगियोंका प्रमाण है । त्रसराशिमेंसे त्रियोगियोंका प्रमाण घटानेपर द्वियोगियोंका और संसारराशिमेंसे त्रियोगि तथा द्वियोगियोंका प्रमाण घटानेपर एकयोगियोंका प्रमाण निकलता है।
अंत्तोमुहुत्तमेत्ता चउमणजोगा कमेण संखगुणा । तजोगो सामण्णं चउवचिजोगा तदो दु संखगुणा ॥ २६१॥ अन्तर्मुहूर्तमात्राः चतुर्मनोयोगाः क्रमेण संख्यगुणाः । तद्योगः सामान्यं चतुर्वचोयोगाः ततस्तु संख्यगुणाः ॥ २६१ ॥
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