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गोम्मटसार। प्रमाण है । भावार्थ-स्थितिके प्रमाणमें जितनीवार सोपक्रम कालका सम्भव हो उसको शलाका कहते हैं । इसका प्रमाण उक्त क्रमानुसार समझना ।
तं सुद्धसलागाहिदणियरासिमपुण्णकाललद्धाहि । सुद्धसलागाहिं गुणे वेंतरवेगुवमिस्सा हु॥ २६७ ॥ तं शुद्धशलाकाहितनिजराशिमपूर्णकाललब्धाभिः ।
शुद्धशलाकाभिर्गुणे व्यन्तरवैगूर्वमिश्रा हि ॥ २६७ ॥ अर्थ-पूर्वोक्त व्यन्तर देवों के प्रमाणमें शुद्ध उपक्रम शलाकाका भाग देनेसे जो लब्ध आवे उसका अपर्याप्त-काल-सम्बन्धी शुद्ध उपक्रम शलाकाके साथ गुणा करने पर जो प्रमाण हो उतने ही वैक्रियिकमिश्रयोगके धारक व्यन्तरदेव समझने चाहिये । भावार्थ-संख्यात वर्षकी स्थितिवाले व्यन्तरदेव अधिक उत्पन्न होते हैं इसलिये उनकीही मुख्यतासे यहां प्रमाण बताया है।
तहिं सेसदेवणारयमिस्सजुदे सबमिस्सवेगुवं । सुरणिरयकायजोगा वेगुवियकायजोगा हु ॥ २६८॥ तस्मिन् शेषदेवनारकमिश्रयुते सर्वमिश्रवैगूर्वम् ।।
सुरनिरयकाययोगा वैगूर्विककाययोगा हि ॥ २६८ ॥ अर्थ-उक्त व्यन्तरों के प्रमाणमें शेष भवनवासी, ज्योतिषी, वैमानिक और नारकियोंके मिश्र काययोगका प्रमाण मिलानेसे सम्पूर्ण मिश्र वैक्रियिक काययोगका प्रमाण होता है। और देव तथा नारकियोंके काययोगका प्रमाण मिलानेसे समस्त वैक्रियिक काययोगका प्रमाण होता है। . आहारककाययोगी तथा आहारकमिश्रकाययोगियोंका प्रमाण बताते हैं ।
आहारकायजोगा चउवण्णं होंति एकसमयम्हि । आहारमिस्सजोगा सत्तावीसा दु उक्कस्सं ॥ २६९ ॥
आहारकाययोगाः चतुष्पञ्चाशत् भवन्ति एकसमये ।
___ आहारमिश्रयोगा सप्तविंशतिस्तूत्कृष्टम् ॥ २६९ ॥ अर्थ—एक समयमें आहारककाययोगवाले जीव अधिकसे अधिक चौअन होते हैं । और आहारमिश्रयोगवाले जीव अधिकसे अधिक सत्ताईस होते हैं। यहां पर जो उत्कृष्ट शब्द है वह मध्यदीपक है। भावार्थ-जिस प्रकार देहलीपर रक्खा हुआ दीपक बाहर और भीतर दोनों जगह प्रकाश करता है उसही प्रकार यह शब्द भी पूर्वोक्त तथा जिसका आगे वर्णन करेंगे ऐसी दोनोंही संख्याओंको उत्कृष्ट अपेक्षा समझना यह सूचित करता है ।
इति योगमार्गणाधिकारः॥
गो. १४
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