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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम्। अर्थ-कार्मणकाययोगका काल तीन समय, औदारिकमिश्रयोगका काल संख्यात आवली, औदारिक काययोगका काल संख्यात गुणित ( औदारिकमिश्रके कालसे) आवली है। इन तीनोंको जोड़ देनेसे जो समयोंका प्रमाण हो उसका एकयोगिजीवराशिमें भाग देनेसे लब्ध एक भागके साथ कार्मणकालका गुणा करने पर कार्मणकाययोगी जीवोंका प्रमाण निकलता है । इस ही प्रकार उसी एक भागके साथ औदारिकमिश्रकाल तथा औदारिककालका गुणा करनेपर औदारिकमिश्रकाययोगी और औदारिककाययोगी जीवोंका प्रमाण होता है । इन तीनों तरहके जीवोंमें सबसे कम कार्मण काययोगी हैं उनसे असंख्यातगुणे औदारिकमिश्रयोगी हैं और उनसे संख्यातगुणे औदारिककाययोगी हैं।
चार गाथाओंमें वैक्रियिकमिश्र तथा वैक्रियिककाययोगके धारक जीवोंका प्रमाण बताते हैं।
सोवकमाणुवक्कमकालो संखेजवासठिदिवाणे । आवलिअसंखभागो संखेज्जावलिपमा कमसो ॥ २६५ ॥ सोपक्रमानुपक्रमकालः संख्यातवर्षस्थितिवाने ।
आवल्यसंख्यभागः संख्यातावलिप्रमः क्रमशः ॥ २६५ ॥ अर्थ-संख्यातवर्षकी स्थितिवाले उसमें भी प्रधानतया जघन्य दश हजार वर्षकी स्थितिवाले व्यन्तर देवोंका सोपक्रम तथा अनुपक्रम काल क्रमसे आवलीके असंख्यातमे भाग और संख्यात आवली प्रमाण है । भावार्थ-उत्पत्तिसहित कालको सोपक्रम काल कहते हैं । और उत्पत्तिरहित कालको अनुपक्रम काल कहते हैं। यदि व्यन्तर देव निरन्तर उत्पन्न हों तो आवलीके असंख्यातमे भागमात्रकाल पर्यन्त उत्पन्न होते ही रहें । यदि कोई भी व्यन्तर देव उत्पन्न न हो तो ज्यादेसे ज्यादे संख्यात आवलीमात्र काल पर्यन्त (बारह मुहूर्त ) उत्पन्न न हो, पीछे कोई न कोई उत्पन्न हो ही ।
तहिं सवे सुद्धसला सोवक्कमकालदो दु संखगुणा । तत्तो संखगुणूणा अपुण्णकालम्हि सुद्धसला ॥ २६६ ॥ तस्मिन् सर्वाः शुद्धशलाकाः सोपक्रमकालतस्तु संख्यगुणाः ।
ततः संख्यगुणोना अपूर्णकाले शुद्धशलाकाः ॥ २६६ ॥ अर्थ-जघन्य दश हजार वर्षकी स्थितिमें अनुपक्रमकालको छोड़कर पर्याप्त तथा अपर्याप्त कालसम्बन्धी सोपक्रम कालकी शलाकाका प्रमाण, सोपक्रमकालके प्रमाणसे संख्यातगुणा है । और इससे संख्यातगुणा कम अपर्याप्तकालसम्बन्धी सोपक्रमकालकी शलाकाका
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