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गोम्मटसारः ।
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अर्थ — जिस औदारिक शरीरका स्वरूप पहले वताचुके हैं, वही शरीर जब तक पूर्ण नहीं होता तबतक मिश्र कहाजाता है । और उसके द्वारा होनेवाले योगको औदारिकमिश्रयोग कहते हैं । भावार्थ - शरीर पर्याप्ति से पूर्व कार्मणशरीरकी सहायता से होनेवाले औदारिक काययोगको औदारिकमिश्रकाययोग कहते हैं ।
वैयिक काययोगको बताते हैं ।
विगुणत्तिं विक्किरियं वा हु होदि वेगुवं । तिस्से भवं च णेयं वेगुधियकायजोगो सो ॥ २३१ ॥ विविधगुणर्द्धियुक्तं विक्रियं वा हि भवति विगूर्वम् । तस्मिन् भवं च ज्ञेयं वैगूर्विककाययोगः सः ॥ २३१ ॥
अर्थ - नाना प्रकार के गुण और ऋद्धियोंसे युक्त देव तथा नारकियों के शरीरको वैक्रियिक अथवा विगूर्व कहते हैं । और इसके द्वारा होनेवाले योगको वैमूर्विक अथवा वैकियिककाययोग कहते हैं ।
वैक्रियिक काययोगकी सम्भावना कहां २ पर है यह बताते हैं ।
बादरतेऊबाऊपंचिदियपुण्णगा विगुवंति |
ओरालियं सरीरं विगुणप्पं हवे जेसिं ॥ २३२ ॥ बादरतेजोवायुपंचेन्द्रियपूर्णका विगूर्वन्ति ।
औरालिकं शरीरं विगूर्वणात्मकं भवेत् येषाम् ॥ २३२ ॥
अर्थ- बादर ( स्थूल ) तेजस्कायिक और वायुकायिक तथा संज्ञी पर्याप्त पंचेन्द्रिय, और भोगभूमिज तिर्थ मनुष्य भी विक्रिया करते हैं । इसलिये इनका भी औदारिक शरीर वैक्रियिक होता है। भावार्थ — इन जीवों का भी औदारिकशरीर वैक्रियिक होता है । परन्तु यह विक्रिया अपृथक् विक्रिया होती है । किन्तु भोगभूमिज और चक्रवर्ती पृथक् विक्रिया करते हैं ।
वैक्रियिक मिश्र काययोगको बताते हैं ।
ayarsarथं विजाणमिस्सं तु अपरिपुण्णं तं ।
जो तेण संपजोगो वेगवियमिस्सजोगो सो ॥ २३३ ॥ वैर्विकमुक्तार्थं विजानीहि मिश्रं तु अपरिपूर्णं तत् । यस्तेन संप्रयोगो वैगूर्विक मिश्रयोगः सः ॥ २३३॥
अर्थ—उक्त वैक्रियिक शरीर जबतक पूर्ण नहीं होता तब तक उसको वैक्रियिकमिश्र कहते हैं । और उसके द्वारा होनेवाले योगको वैक्रियिकमिश्रकाययोग कहते हैं । भावार्थ
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