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गोम्मटसारः ।
नवमी अनक्षरगता असत्यमृषा भवन्ति भाषा: ।
श्रोतॄणां यस्मात् व्यक्ताव्यक्तांशसंज्ञापिकाः ॥ २२५ ॥
अर्थ – आमन्त्रणी, आज्ञापनी, याचनी, आपृच्छनी, प्रज्ञापनी, प्रत्याख्यानी, संशयवचनी, इच्छानुलोम्नी, अनक्षरगता ये नव प्रकारकी अनुभयात्मक भाषा है । क्योंकि इनके सुननेवालेको व्यक्त और अव्यक्त दोनोंही अंशोंका ज्ञान होता है । भावार्थ हे देवदत्त ! यहां आओ इसतरहके बुलानेवाले वचनोंको आमन्त्रणी भाषा कहते हैं । यह काम करो इसतरहके आज्ञावचनोंको आज्ञापनी भाषा कहते हैं । यह मुझको दो इसतरके प्रार्थनावचनोंको याचनी भाषा कहते हैं । यह क्या है ? इसतरहके प्रश्नवचनों को आपृच्छनी भाषा कहते हैं । मैं क्या करूं इसतरह के सूचनावाक्योंको प्रज्ञापनी भाषा कहते हैं । इसको छोड़ता हूं इसतरह के छोडनेवाले वाक्योंको प्रत्याख्यानी भाषा कहते हैं । यह बलाका है अथवा पताका ऐसे संदिग्ध वचनों को संशयवचनी भाषा कहते हैं । मुझको भी ऐसा ही होना चाहिये ऐसे इच्छाको प्रकटकरनेवाले वचनोंको इच्छानुलोम्नी भाषा कहते हैं। द्वीन्द्रियादिक असंज्ञिपंचेन्द्रियपर्यन्त जीवोंकी भाषा अनक्षरात्मक होती है । ये सब ही भाषा अनुभवचन रूप हैं क्योंकि इनके सुननेसे व्यक्त और अव्यक्त दोंनो ही अंशोंका बोध होता है । इसलिये सामान्य अंशके व्यक्त होनेसे असत्य भी नहीं कह सकते, और विशेष अंशके व्यक्त न होनेसे सत्य भी नहीं कह सकते ।
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चारों प्रकारके मनोयोग तथा वचनयोगका मूलकारण बताते हैं ।
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मणवयणाणं मूलणिमित्तं खलु पुण्णदेहउदओ दु । मोसुभयाणं मूलणिमित्तं खलु होदि आवरणं ॥ २२६ ॥ मनोवचनयोर्मूलनिमित्तं खलु पूर्णदेहोदयस्तु ।
मृषोभययोर्मूलनिमित्तं खलु भवत्यावरणम् ।। २२६॥
'सयोगकेवली के मनोयोगकी संभवता बताते हैं ।
अर्थ - सत्य और अनुमय मनोयोग तथा वचनयोगका मूलकारण पर्याप्ति और शरीरनामकर्मका उदय है । मृषा और उभय मनोयोग तथा वचनयोगका मूलकारण अपना २ आवरण कर्म है ।
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मणसहियाणं वयणं दिट्ठं तप्पुवमिदि सजोगम्हि । उत्तो मणोवयारेणिदियणाणेण हीणम्हि ॥ २२७ ॥ मनः सहितानां वचनं दृष्टं तत्पूर्वमिति सयोगे ।
उक्तो मन उपचारेणेन्द्रियज्ञानेन हीने ॥ २२७ ॥
अर्थ —– अस्मदादिक छद्मस्थ मनसहित जीवोंके वचनप्रयोग मनपूर्वक ही होता है
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