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गोम्मटसारः।
मात्र है । आहार शरीरपर्याप्तिके पूर्ण होने पर कदाचित् आहारकऋद्धिवाले मुनिका मरण भी हो सकता है। आहारक काययोगका निरुक्तिसिद्ध अर्थ बताते हैं ।
आहरदि अणेण मुणी सुहमे अत्थे सयस्स संदेहे । गत्ता केवलिपासं तम्हा आहारगो जोगो ॥ २३८॥
आहरत्यनेन मुनिः सूक्ष्मानर्थान् स्वस्य संदेहे ।
गत्वा केवलिपार्श्व तस्मादाहारको योगः ॥ २३८ ॥ अर्थ-छढे गुणस्थानवर्ती मुनि अपनेको संदेह होनेपर इस शरीरके द्वारा केवलीके पासमें जाकर सूक्ष्म पदार्थोंका आहरण ( ग्रहण) करता है इसलिये इस शरीरके द्वारा होनेवाले योगको आहारककाययोग कहते हैं । आहारक मिश्रयोगका निरूपण करते हैं।
आहारयमुत्तत्थं विजाण मिस्सं तु अपरिपुण्णं तं । .. जो तेण संपजोगो आहारयमिस्सजोगो सो ॥ २३९ ॥
आहारकमुक्तार्थ विजानीहि मिश्रं तु अपरिपूर्ण तत् । ___ यस्तेन संप्रयोग आहारकमिश्रयोगः सः ॥ २३९ ॥ अर्थ-उक्त आहारक शरीर जब तक पर्याप्त नहीं होता तब तक उसको आहारकमिश्र कहते हैं। और उसके द्वारा होनेवाले योगको आहारकमिश्रयोग कहते हैं। कार्मणकाययोगको बताते हैं।
कम्मेव य कम्मभवं कम्मइयं जो दु तेण संजोगो। कम्मइयकायजोगो इगिविगतिगसमयकालेसु ॥ २४०॥
कम्मैव च कर्मभवं कार्मणं यस्तु तेन संयोगः ।
कार्मणकाययोग एकद्विकत्रिकसमयकालेषु ॥ २४० ॥ अर्थ-ज्ञानावरणादिक अष्टकोंके समूहको अथवा कार्मणशरीर नामकर्मके उदयसे होनेवाली कायको कार्मणकाय कहते हैं । और उसके द्वारा होनेवाले योगको कार्मणकाययोग कहते हैं । यह योग एक दो अथवा तीन समयतक होता है । भावार्थ-विग्रहगतिमें
और केवलसमुद्धातमें भी तीन समय पर्यन्त ही कार्मणकाययोग होता है; किन्तु दूसरे योगोंका ऐसा नियम नहीं है । यहां पर जो समय और काल ये दो शब्द दिये हैं उससे यह सूचित होता है कि शेष योगोंका अव्याघातकी अपेक्षा अन्तर्मुहूर्त और व्याघातकी
१ दो प्रतर और एक लोकपूर्ण समुद्धातकी अपेक्षा केवलसमुद्धातमें भी कार्मणयोगको तीन ही समय लगते हैं।
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