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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । ___ सप्रतिष्ठित प्रत्येक और अप्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पतिकी पहचान ( परीक्षा-चिन्ह ) बताते हैं।
गूढसिरसंधिपचं समभंगमहीरुहं च छिण्णरुहं । साहारणं सरीरं तविबरीयं च पत्तेयं ॥ १८६ ॥ __गूढशिरासन्धिपर्व समभङ्गमहीरुकं च छिन्नरुहम् ।
साधारणं शरीरं तद्विपरीतं च प्रत्यकम् ॥ १८६ ॥ अर्थ-जिनकी शिरा संधि पर्व अप्रकट हों, और जिसका भङ्ग करनेपर समान भंग हों, और दोनों भङ्गोमें परस्पर तन्तु न लगा रहै, तथा छेदन करने पर भी जिसकी पुनः वृद्धि होजाय उसको सप्रतिष्ठित प्रत्येक, और इससे विपरीतको अप्रतिष्ठित प्रत्येक कहते हैं।
मूले कंदे छल्लीपवालसालदलकुसुमफलबीजे । समभंगे सदि णंता असमे सदि होंति पत्तेया ॥ १८७ ॥ मूले कन्दे त्वक्प्रवालशालादलकुसुमफलबीजे ।
समभङ्गे सति नान्ता असमे सति भवन्ति प्रत्येकाः ॥ १८७ ॥ अर्थ-जिन वनस्पतियोंके मूल कन्द त्वचा प्रवाल ( नवीन कोंपल ) क्षुद्रशाखा (टहनी ) पत्र फूल फल तथा बीजोंको तोड़नेसे समान भङ्ग हो उसको सप्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पति कहते हैं । और जिनका भङ्ग समान न हो उसको अप्रतिष्ठित प्रत्येक कहते हैं ।
कंदस्स व मूलस्स व सालाखंदस्स वाबि बहुलतरी। छल्ली साणंतजिया पत्तेयजिया तु तणुकदरी ॥ १८८ ॥ कन्दस्य वा मूलस्य वा शालास्कन्धस्य वापि बहुलतरा ।
त्वकू सा अनन्तजीवा प्रत्येकजीवा तु तनुकतरा ॥ १८८॥ अर्थ-जिस वनस्पतिके कन्द, मूल, क्षुद्रशाखा या स्कन्धकी छाल मोटी हो उसको अनन्तजीव (सप्रतिष्ठित प्रत्येक ) कहते हैं । और जिसकी छाल पतली हो उसको अप्रतिष्ठित प्रत्येक कहते हैं।
वीजे जोणीभूदे जीवो चंकमदि सो व अण्णो वा । जे वि य मूलादीया ते पत्तेया पढमदाए ॥ १८९ ॥ बीजे योनीभूते जीवः चामति स वा अन्यो वा ।
येपि च मूलादिकास्ते प्रत्येकाः प्रथमतायाम् ॥ १८९ ॥ अर्थ-जिस योनीभूत बीजमें वही जीव या कोई अन्य जीव आकर उत्पन्न हो वह और मूलादिक प्रथम अवस्थामें अप्रतिष्ठित प्रत्येक होते हैं । भावार्थ-वे बीज जिनकी कि
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