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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । . अर्थ-जो जीव दो तीन चार पांच इन्द्रियोंसे युक्त हैं उनको वीर भगवान्के उपदेशसे अस काय समझना चाहिये। भावार्थ-पूर्वोक्त स्पर्शनादिक पांच इन्द्रियोंमें से आदिकी दो, तीन, चार, या पांच इन्द्रियोंसे जो युक्त है उसको त्रस कहते हैं । अत एव इन्द्रियोंकी अपेक्षा त्रसोंके चार भेद हुए-द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय ।
उबबादमारणंतियपरिणदतसमुज्झिऊण सेसतसा । तसणालिबाहिरह्मि य णस्थित्ति जिणेहिं णिदिटं ॥ १९८ ॥ उपपादमारणान्तिकपरिणतत्रसमुज्झित्वा शेषत्रसाः ।
सनालीबाह्ये च न सन्तीति जिनैर्निर्दिष्टम् ॥ १९८ ॥ अर्थ-उपपाद और मारणान्तिक समुद्धातवाले त्रस जीवोंको छोड़कर बाकीके त्रस जीव त्रसनालीके बाहर नहीं होते यह जिनेन्द्रदेवने कहा है । भावार्थ-किसी विवक्षित भवकें प्रथम समयकी पर्यायको उपपाद कहते हैं। अपनी आयुके अन्तिम अन्तर्मुहूर्तमें जो समुद्धात होता है उसको मारणान्तिक समुद्धात कहते हैं । लोकके बिलकुल मध्यमें एक २ राजू चौड़ी और मोटी तथा चौदह राजू ऊंची नाली है-उसको त्रसनाली कहते हैं; क्योंकि त्रस जीव इसके भीतर ही होते हैं-बाहर नहीं होते। किन्तु उपपाद और मारणान्तिक समुद्धातवाले त्रस, तथा इस गाथामें च शब्दका ग्रहण किया है इसलिये केवलसमुद्धातवाले भी त्रसनालीके बाहर कदाचित् रहते हैं। वह इस प्रकारसे कि लोकके अन्तिम वातवलयमें स्थित कोई जीव मरण करके विग्रहगतिद्वारा त्रसनालिमें त्रसपर्यायसे उत्पन्न होनेवाला है, वह जीव जिस समयमें मरण करके प्रथम मोड़ा लेता है उस समयमें त्रसपर्यायको धारण करने पर भी त्रसनालीके बाहर है । इस लिये उपपादकी अपेक्षा त्रस जीव त्रसनालीके बाहर रहता है । इसही प्रकार त्रसनालीमें स्थित किसी त्रसने मारणान्तिक समुद्धातके द्वारा त्रसनालीके बाहिरके प्रदेशोंका स्पर्श किया; क्योंकि उसको मरण करके वहीं उत्पन्न होना है, तो उस समयमें भी त्रस जीवका अस्तित्व त्रसनालीके बाहिर पाया जाता है । इस ही तरह जब केवली केवलसमुद्धातके द्वारा त्रसनालीके बाह्य प्रदेशोंका स्पर्श करते हैं उस समयमें भी त्रसनालीके बाहर त्रस जीवका सद्भाव पाया जाता है । परन्तु इन तीनको छोड़कर बाकी त्रस जीव त्रसनालीके बाहर कभी नहीं रहते ।
जिस तरह वनस्पतियोंमें प्रतिष्ठित अप्रतिष्ठित भेद हैं उस ही तरह दूसरे जीवों में भी ये भेद होते हैं यह बताते हैं ।
पुढवीआदिचउण्हं केवलिआहारदेवणिरयंगा। अपदिटिदा णिगोदहि पदिट्टिदंगा हवे सेसा ॥ १९९ ॥ पृथिव्यादिचतुर्णा केवल्याहारदेवनिरयाङ्गानि । अप्रतिष्ठितानि निगोदैः प्रतिष्ठिताङ्गा भवन्ति शेषाः ॥ १९९ ॥
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