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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् नका. वही नाम होता है । और उसके सम्बन्धसे उस प्रवृत्तिका भी वही नाम होता है । भावार्थ-सत्य पदार्थको जाननेकेलिये किसी मनुष्यके मन या वचन की प्रवृत्ति हुई तो उसके मनको सत्यमन और वचनको सत्य वचन कहेंगे। तथा उनके द्वारा होनेवाले योगको सत्यमनोयोग और सत्य वचनयोग कहेंगे । इस ही प्रकार मन और वचनके सत्य असत्य उभय अनुभय इन चारों भेदोंको भी समझना चाहिये । ... सम्यग्ज्ञानके विषयभूत पदार्थको सत्य कहते हैं, जैसे यह जल है । मिथ्याज्ञानके विषयभूत पदार्थको मिथ्या कहते हैं, जैसे मरीचिकामें यह जल है । दोनों के विषयभूत पदार्थको उभय कहते हैं जैसे कमण्डलुमें यह घट है; क्योंकि कमण्डलु घटका काम देता है इसलिये कथंचित् सत्य है और घटाकार नहीं है इसलिये असत्य भी है। जो दोनोंही प्रकारके ज्ञानका विषय न हो उसको अनुभय कहते हैं जैसे सामान्यरूपसे यह प्रतिभास होना कि "यह कुछ है। यहां पर सत्य असत्यका कुछ भी निर्णय नहीं होसकता इसलिये अनुभय है। योगविशेषोंका लक्षण कहते हैं ।
सब्भावमणो सच्चो जो जोगो तेण सच्चमणजोगो। तधिवरीओ मोसो जाणुभयं सच्चमोसोत्ति ॥ २१७॥
सद्भावमनः सत्यं यो योगस्तेन सत्यमनोयोगः । - तद्विपरीतो मृषा जानीहि उभयं सत्यमृषेति ॥ २१७ ॥
अर्थ-समीचीन भावमनको ( पदार्थको जाननेकी शक्तिरूप ज्ञानको) अर्थात् समीचीन पदार्थको विषय करनेवाले मनको सत्यमन कहते हैं । और उसके द्वारा जो योग होता है उसको सत्यमनोयोग कहते हैं । सत्यसे जो विपरीत है उसको मिथ्या कहते हैं। तथा सत्य और मिथ्या दोनों ही प्रकारके मनको उभय मन कहते हैं ।
ण य सचमोसजुत्तो जो दु मणो सो असञ्चमोसमणो । जो जोगो तेण हवे असचमोसो दु मणजोगो ॥ २१८ ॥ न च सत्यमृषायुक्तं यत्तु मनः तदसत्यमृषामनः ।
यो योगस्तेन भवेत् असत्यमृषा तु मनोयोगः ॥ २१८ ॥ अर्थ-जो न तो सत्य हो ओर न मृषा हो उसको असत्यमृषा मन कहते हैं । और उसके द्वारा जो योग होता है उसको असत्यमृषामनोयोग कहते हैं।
दसविहसचे वयणे जो जोगो सो दु सच्चवचिजोगो। तचिवरीओ मोसो जाणुभयं सचमोसोत्ति ॥ २१९ ॥
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