________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir
गोम्मटसार।
कोशल आदि अनेक देश, एक २ देशमें अयोध्या आदि अनेक नगरी, और एक २ नगरीमें अनेक घर होते हैं। उस ही प्रकार एक २ स्कन्धमें असंख्यातलोक २ प्रमाण अंडर, एक २ अंडरमें असंख्यातलोक २ प्रमाण आवास, एक २ आवासमें असंख्यातलोक २ प्रमाण पुलवि, और एक २ पुलविमें असंख्यातलोक २ प्रमाण बादर निगोदियाजीवोंके शरीर होते हैं। एक निगोदशरीरमें द्रव्यकी अपेक्षा जीवोंका प्रमाण बताते हैं ।
एगणिगोदशरीरे जीवा दवप्पमाणदो दिट्ठा । सिद्धेहिं अणंतगुणा सवेण वितीदकालेण ॥ १९५ ॥
एकनिगोदशरीरे जीवा द्रव्यप्रमाणतो दृष्टाः ।
सिद्धैरनन्तगुणाः सर्वेण व्यतीतकालेन ॥ १९५ ॥ अर्थ-द्रव्यकी अपेक्षा सिद्धराशिसे और सम्पूर्ण अतीतकालके समयोंसे अनन्तगुणे जीव एक निगोद शरीरमें रहते हैं । नित्यनिगोदका लक्षण कहते हैं।
अत्थि अणंता जीवा जेहिं ण पत्तो तसाण परिणामो । भावकलङ्कसुपउरा णिगोदवासं ण मुंचंति ॥ १९६ ॥
सन्ति अनन्ता जीवा यैर्न प्राप्तः त्रसानां परिणामः । __ भावकलङ्कसुप्रचुरा निगोदवासं न मुञ्चन्ति ॥ १९६ ॥ अर्थ-ऐसे अनन्तानन्त जीव हैं कि जिन्होंने त्रसोंकी पर्याय अभीतक कभी नहीं पाई है, और जो निगोद अवस्थामें होनेवाले दुर्लेश्यारूप परिणामोंसे अत्यन्त अभिभूत रहनेके कारण निगोदस्थानको कभी नहीं छोड़ते । भावार्थ-निगोदके दो भेद हैं, एक इतरनिगोद दूसरा नित्यनिगोद । जिसने कभी त्रस पर्यायको प्राप्त करलिया हो उसको इतरनिगोद कहते हैं। और जिसने अभीतक कभी सपर्यायको नहीं पाया, अथवा जो कभी त्रस पर्यायको नहीं पावेगा उसको नित्यनिगोद कहते हैं। क्योंकि नित्यशब्दके दो अर्थ होते हैं. एक तो अनादि दूसरा अनादि अनन्त । इन दोनों ही प्रकारके जीवोंकी संख्या अनन्तानन्त है। दो गाथाओंमें त्रस जीवोंका खरूप भेद और उनका क्षेत्र आदि बताते हैं।
विहि तिहि चदुहिं पंचहि सहिया जे इंदिएहि लोयसि । ते तसकाया जीवा णेया वीरोबदेसेण ॥ १९७ ॥ द्वाभ्यां त्रिभिश्चतुर्भिः पञ्चभिः सहिता ये इन्द्रियैर्लोके । ते त्रसकाया जीवा ज्ञेया वीरोपदेशेन ॥ १९७ ॥
For Private And Personal