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गोम्मटसार।
अर्थ-पृथिवी, जल, अमि, और वायुकायके जीवोंका शरीर तथा केवलिशरीर आहारकशरीर और देवनारकियोंका शरीर निगोदिया जीवोंसे अप्रतिष्ठित है । और शेष वनस्पतिकायके. जीवोंका शरीर तथा द्वीन्द्रिय त्रीन्द्रिय चतुरिन्द्रिय पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च और मनुष्योंका शरीर निगोदिया जीवोंसे प्रतिष्ठित है। स्थावरकायिक और त्रसकायिक जीवोंका आकार बताते हैं।
मसुरंतुबिंदुसूईकलावधयसण्णिहो हवे देहो। पुढवीआदिचउण्हं तरुतसकाया अणेयविहा ॥ २०० ॥ मसूराम्बुबिन्दुसूचीकलापध्वंजसन्निभो भवेदेहः ।
पृथिव्यादिचतुर्णा तरुत्रसकाया अनेकविधाः ॥ २० ॥ अर्थ-मसूर ( अन्नविशेष ), जलकी बिन्दु, सुइयोंका समूह, ध्वजा, इनके सदृश क्रमसे पृथिवी अप तेज वायुकायिक जीवोंका शरीर होता है । और वृक्ष तथा त्रसोंका शरीर अनेक प्रकारका होता है । भावार्थ-जिस तरहका मसूरादिकका आकार है उस ही तरहका पृथिवीकायिकादिकका शरीर होता है; किन्तु वृक्ष और त्रसोंका शरीर एक प्रकारका नहीं; किन्तु अनेक आकारका होता है । .
इस प्रकार कायमार्गणाका निरूपण करके, अब कायविशिष्ट यह संसारी जीव कायके द्वारा ही कर्मभारका वहन करता है यह दृष्टान्तद्वारा बताते हैं।
जह भारवहो पुरिसो वहइ भरं गेहिऊण कावलियं । एमेव वहइ जीवो कम्मभरं कायकावलियं ॥ २०१॥ यथा भारवहः पुरुषो वहति भारं गृहीत्वा कावटिकाम् ।।
एवमेव वहति जीवः कर्मभरं कायकावटिकाम् ॥ २०१ ॥ अर्थ-जिस प्रकार कोई भारवाही पुरुष कांवटिकाके द्वारा भारका वहन करता है, उस ही प्रकार यह जीव कायरूपी कावटिकाके द्वारा कर्मभारका वहन करता है । भावार्थजिस प्रकार मजूर कावटिकाके द्वारा निरन्तर वोझा ढोता है, और उससे रहित होनेपर सुखी होता है, उस ही प्रकार यह संसारी जीव कायके द्वारा कर्मरूपी वोझाको नाना गतियोंमें लिये फिरता है; किन्तु इस काय और कर्मके अभावमें परम सुखी होता है। कायमार्गणासे रहित सिद्धोंका स्वरूप बताते हैं ।
जह कंचणमग्गिगयं मुंचइ किट्टेण कालियाए य ।
तह कायबंधमुक्का अकाइया झाणजोगेण ॥ २०२॥ १ अर्थात् इतने जीवोंके शरीरके आश्रय निगोदिया जीव नहीं रहते हैं । २ वहँगी-कावड़ी। , ,
गो. ११
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