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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् ।
त्रसहीनाः संसारिण एकाक्षास्तेषां संख्यका भागाः । पूर्णानां परिमाणं संख्येयकमपूर्णानाम् ॥ १७५ ॥
अर्थ – संसारराशि में से सराशिको घटानेपर जितना शेष रहे उतने ही एकेन्द्रिय व हैं । और एकेन्द्रियजीवोंकी राशि में संख्यातका भाग देना उसमें एक भागप्रमाण अपर्याप्तक और शेष बहुभागप्रमाण पर्याप्तक जीव हैं ।
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बादरसुहमा तेसिं पुण्णा पुण्णेत्ति छविहाणंपि । तक्काय मग्गणाये भणिजमाणकमो यो ॥ १७६ ॥ बादरसूक्ष्मास्तेषां पूर्णापूर्ण इति षडूविधानामपि । तत्कायमार्गणायां भणिष्यमाणक्रमो ज्ञेयः ॥ १७६ ॥
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अर्थ – एकेन्द्रियजीवों के सामान्यसे दो भेद हैं बादर और सूक्ष्म । इसमें भी प्रत्येक के पर्याप्तक और अपर्याप्तक के भेद से दो २ भेद हैं । इस प्रकार एकेन्द्रियोंकी छह राशियोंकी संख्याका क्रम कायमार्गणा में कहेंगे बहांसे ही समझलेना । भावार्थ —— एकेन्द्रिय जीवोंकी छह राशियोंका प्रमाण कायमार्गणा में विशेषरूपसे कहेंगे ।
इस प्रकार केन्द्रिय जीवोंकी संख्याको सामान्यसे बताकर अब त्रसजीवोंकी संख्याको तीन गाथाओं में बताते हैं ।
वितिचपमाणमसंखेणवहिदपदरंगुलेण हिदपदरं ।
हीणकमं पडिभागो आवलियासंखभागो दु ॥ १७७ ॥ द्वित्रिचतुःपञ्चमानमसंख्येनावहितप्रतराङ्गुलेन हितप्रतरम् ।
ही क्रमं प्रतिभाग आवलिकासंख्यभागस्तु ॥ १७७ ॥
अर्थ - प्रतराङ्गुलके असंख्यातमें भागका जगत्प्रतर में भाग देनेसे जो लब्ध आवे उतना सामान्यसे सराशिका प्रमाण है । परन्तु पूर्व २ द्वीन्द्रियादिककी अपेक्षा उत्तरोत्तर त्रीन्द्रियादिकका प्रमाण क्रमसे हीन २ है । और इसका प्रतिभागहार आवलिका असंख्यातमा भाग है।
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इस उक्त सराशिके प्रमाणको स्पष्टरूपसे विभक्त करते हैं ।
बहुभागे समभागो चउण्णमेदेसिमेकभागलि ।
उत्तम तत्व बहुभागो बहुगस्स देओ दु ॥ १७८ ॥ बहुभागे समभागश्चतुर्णामेतेषामेकभागे ।
उक्त मस्तत्रापि बहुभागो बहुकस्य देयस्तु ॥ १७८ ॥
अर्थ — सराशिमें आवलिके असंख्यातमे भागका भाग देकर लब्ध बहुभागके समान चार भाग करना । और एक २ भागको द्वीन्द्रियादि चारोही में विभक्त कर, शेष एक भाग में
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