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गोम्मटसार । इस प्रकार इन्द्रियज्ञानवाले संसारी जीवोंका वर्णन करके अतीन्द्रियज्ञानवालोंका निरूपण करते हैं।
णबि इंदियकरणजुदा अवग्गहादीहि गाहया अत्थे । णेव य इंदियसोक्खा अणिदियाणतणाणसुहा ॥ १७३ ॥ नापि इन्द्रियकरणयुता अवग्रहादिभिः ग्राहका अर्थे ।
नैव च इन्द्रियसौख्या अनिन्द्रियानन्तज्ञानसुखाः ॥ १७३ ॥ अर्थ-वे मुक्त जीव इन्द्रियोंकी क्रियासे युक्त नहीं हैं । तथा अवग्रहादिक क्षायोपशमिक ज्ञानके द्वारा पदार्थका ग्रहण नहीं करते । और इन्द्रियजन्य सुखसे भी युक्त नहीं हैं; क्योंकि उन मुक्त जीवोंका अनन्तज्ञान और अनन्तसुख अनिन्द्रिय है । भावार्थ-मुक्तजीवोंका अनन्त ज्ञान और अनन्त सुख अपनी प्रवृत्तिमें इन्द्रियव्यापारकी अपेक्षा नहीं रखता; क्योंकि वह निरावरण है जो सावरण होता है उसको दूसरेकी अपेक्षा होती है ।
और जो स्वयं अपने कार्यके करनेमें समर्थ है उसको दूसरेकी अपेक्षा नहीं होती। इस ही लिये वे मुक्त जीव इन्द्रियव्यापारसे रहित हैं । और त्रिकालवर्ती समस्त पदार्थोको अनन्तज्ञान के द्वारा प्रत्यक्ष जानते हैं, अवग्रह ईहा अवाय धारणा स्मृति प्रत्यभिज्ञान तर्क अनुमान आदि क्षायोपशमिक ज्ञानके द्वारा नहीं जानते । और उनके इन्द्रियजन्य सुख भी नहीं है । क्योंकि उसके कारणभूत प्रतिपक्षी कर्मका सर्वथा अभाव होचुका है । संक्षेपसे एकेन्द्रियादि जीवोंकी संख्याको बताते हैं ।
थावरसंखपिपीलियभमरमणुस्सादिगा सभेदा जे । जुगवारमसंखेजाणताणंता णिगोदभवा ॥ १७४ ॥ स्थावरशङ्खपिपीलिकाभ्रमरमनुष्यादिकाः सभेदा ये ।
युगवारमसंख्येया अनन्तानन्ता निगोदभवाः ॥ १७४ ॥ ___ अर्थ—स्थावर एकेन्द्रिय जीव, शङ्ख आदिक द्वीन्द्रिय, चींटी आदि त्रीन्द्रिय, भ्रमर आदि चतुरिन्द्रिय, मनुष्यादिक पंचेन्द्रिय जीव अपने २ अन्तभेदोंसे युक्त असंख्यातासंख्यात हैं। और निगोदिया जीव अनन्तानन्त हैं । भावार्थ-त्रस प्रत्येक वनस्पति पृथिवी जल अमि वायु इनको छोड़कर वाकी संसारी जीवोंका ( साधारण जीवोंका ) प्रमाण अनन्तानन्त है । और साधारणको छोड़कर वाकी एकेन्द्रिय स्थावर तथा द्वीन्द्रिय चतुरिन्द्रिय पंचेन्द्रिय इनमें प्रत्येकका प्रमाण जगत्प्रतरके असंख्यातमे भागमात्र असंख्यातासंख्यात है।
तसहीणो संसारी एयक्खा ताण संखगा भागा। पुण्णाणं परिमाणं संखेजदिमं अपुण्णाणं ॥ १७५ ॥
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