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गोम्मटसारः।
मन्यन्ते यतो नित्यं मनसा निपुणा मनसोत्कटा यस्मात् ।
__ मनूद्भवाश्च सर्वे तस्मात्ते मानुषा भणिताः ॥ १४८॥ अर्थ-जो नित्य ही हेय उपादेय तत्व अतत्त्व धर्म अधर्मका विचार करें, और जो मनके द्वारा गुणदोषादिका विचार स्मरण आदि कर सकें, जो पूर्वोक्त मनके विषयमें उत्कृष्ट हों, तथा युगकी आदिमें जो मनुओंसे उत्पन्न हुए हों उनको मनुष्य कहते हैं । भावार्थमनका विषय तीव्र होनेसे गुणदोषादिका विचार स्मरण आदि जिनमें उत्कट रूपसे पाया जाय, तथा चतुर्थ कालकी आदिमें आदीश्वर भगवान् तथा कुलकरोंने उनको व्यवहारका उपदेश दिया इसलिये जो आदीश्वर भगवान् अथवा कुलकरोंकी संतान कहे जाते हैं, उनको मनुष्य कहते हैं । इस गाथामें एक यतः शब्द है दूसरा यस्मात् शब्द है, अर्थ दोनोंका एक ही होता है, इसलिये एक शब्द व्यर्थ है; वह व्यर्थ पड़कर ज्ञापन करता है कि लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्योंमें यद्यपि यह लक्षण घटित नहीं होता तथापि उनको मनुष्यगति नामकर्म और मनुष्य आयुकर्मके उदयमात्रकी अपेक्षासे ही मनुष्य कहते हैं ऐसा समझना चाहिये। तिर्यंच तथा मनुष्यों के भेदोंको गिनाते हैं।
सामण्णा पंचिंदी पजत्ता जोणिणी अपजत्ता। तिरिया णरा तहावि य पंचिंदियभंगदो हीणा ॥ १४९ ॥
सामान्याः पंचेन्द्रियाः पर्याप्ताः योनिमत्यः अपर्याप्ताः ।
तिर्यञ्चो नरास्तथापि च पंचेन्द्रियभंगतो हीनाः ॥ १४९ ॥ अर्थ-तिर्यंचोंके पांच भेद हैं, सामान्यतिर्यंच पंचेन्द्रियतियेच पर्याप्ततियेच योनिमतीतिर्यंच और अपर्याप्ततिर्यंच । इसही प्रकार मनुष्यके भी पंचेन्द्रियके भंगको छोड़कर वाकी चार भेद होते हैं । भावार्थ-तिर्यचोंमें पंचेन्द्रियके प्रतिपक्षी एकेन्द्रियादि जीवोंकी सम्भावना है इसलिये तिर्यचोंमें पंचेन्द्रियके भंगसहित पांच भेद हैं, किन्तु मनुष्योंमें पंचेन्द्रियके प्रतिपक्षकी सम्भावना नहीं है इसलिये उनके सामान्यमनुष्य पर्याप्तमनुष्य योनिमतीमनुष्य अपर्याप्तमनुष्य इसप्रकार चार ही भेद होते हैं। देवोंका खरूप बताते हैं।
दीवंति जदो णिचं गुणेहिं अटेहिं दिवभावहिं । भासंतदिबकाया तह्मा ते वणिया देवा ॥ १५० ॥ दीव्यन्ति यतो नित्यं गुणैरष्टाभिर्दिव्यभावैः ।
भासमानदिव्यकायाः तस्मात्ते वर्णिता देवाः ॥ १५ ॥ अर्थ-जो देवगतिमें होनेवाले परिणामोंसे सदा सुखी रहते हैं । और अणिमा महिमा
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