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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् ।
आदि आठ गुणों (ऋद्धियों ) के द्वारा सदा अप्रतिहतरूपसे विहार करते हैं। और जिनका रूप लावण्य यौवन आदि सदा प्रकाशमान रहे उनको परमागममें देव कहा है । .. इसप्रकार संसारसम्बन्धी चारों गतियोंका स्वरूप बताकर अब संसारसे विलक्षण पांचमी सिद्धगतिका खरूप बताते हैं ।
जाइजरामरणभया संजोगविजोगदुक्खसण्णाओ। रोगादिगा य जिस्से ण संति सा होदि सिद्धगई ॥ १५१ ॥ जातिजरामरणभयाः संयोगवियोगदुःखसंज्ञाः ।
रोगादिकाश्च यस्यां न सन्ति सा भवति सिद्धगतिः ॥ १५१ ॥ अर्थ-पंचेन्द्रियादि जाति बुढ़ापा मरण भय अनिष्टसंयोग इष्टवियोग इनसे होनेवाला दुःख आहारादिविषयक संज्ञा ( वाञ्छा) और रोगादिक जिस गतिमें नहीं पाये जाते उसको सिद्धगति कहते हैं । भावार्थ-एकेन्द्रियादि जाति, आयुःकर्मके घटनेसे शरीरके शिथिल होनेरूप जरा, आयुःकर्मके अभावसे होनेवाला प्राणत्यागरूप मरण, अनर्थकी आशंका करके अपकारक वस्तुसे भागनेकी इच्छारूप भय, क्लेशके कारणभूत अनिष्ट पदार्थ की प्राप्तिरूप संयोग, सुखके कारणभूत इष्ट पदार्थके दूर होनेरूप वियोग इत्यादि दुःख, और आहारसंज्ञा आदि तीनसंज्ञा, (क्योंकि भयसंज्ञाका पृथक् ग्रहण हो चुका है), खांसी आदि अनेक रोग, तथा आदिशब्दसे मानभंग बध बन्धन आदि दुःख जिस गतिमें अपने २ कारणभूत कर्मके अभाव होनेसे नहीं पाये जाते उसको सिद्धगति कहते हैं ।
गतिमार्गणामें जीवसंख्याका वर्णन करनेकी इच्छासे प्रथम नरकगतिमें जीवसंख्याका वर्णन करते हैं। - सामण्णा णेरइया घणअंगुलबिदियमूलगुणसेढी।
बिदियादि बारदसअडछत्तिदुणिजपदहिदा सेढी ॥१५२॥ .. सामान्या नैरयिका घनाङ्गुलद्वितीयमूलगुणश्रेणी।
द्वितीयादिः द्वादशदशाष्टषत्रिद्विनिजपदहिता श्रेणी ॥ १५२ ॥ अर्थ—सामान्यसे सम्पूर्ण नारकियोंका प्रमाण धनाङ्गुलके दूसरे वर्गमूलसे गुणित जगच्छ्रेणी प्रमाण है । द्वितीयादि पृथिवियोंमें होनेवाले नारकियों का प्रमाण क्रमसे अपने बारहमे दशमे आठमे छढे तीसरे दूसरे वर्गमूल से भक्त जगच्छेणीप्रमाण समझना चाहिये । भावार्थ-घनामुलके दूसरे वर्गमूलका जगच्छ्रेणीके साथ गुणा करनेपर जो राशि उत्पन्न हो उतने ही सातो पृथिवियोंके नारकी हैं । इसमें से द्वितीयादिक पृथिवियोंके नारकियोंका प्रमाण बताने के लिये कहते हैं कि अपने अर्थात् सम्पूर्ण नारकियोंका जितना प्रमाण है
१ इस ग्रन्थके अन्त में गणितका प्रकरण लिखेंगे वहांपर इन सबका प्रमाण स्पष्ट रूपसे बताया जायगा।
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