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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । ___ इसप्रकार एकेन्द्रियादि जीवोंके इन्द्रियों के विषयकी वृद्धिका क्रम बताकर अब इन्द्रियवृद्धिका क्रम बताते हैं।
एइंदियस्स फुसणं एक वि य होदि सेसजीवाणं । होंति कमउड्डियाई जिब्भाघाणच्छिसोत्ताई ॥ १६६ ॥ एकेन्द्रियस्य स्पर्शनमेकमपि च भवति शेषजीवानाम् ।
भवन्ति क्रमवर्द्धितानि जिह्वाघ्राणाक्षिश्रोत्राणि ॥ १६६ ॥ अर्थ-एकेन्द्रिय जीवके एक स्पर्शनेन्द्रिय ही होती है । शेष जीवोंके क्रमसे जिह्वा घ्राण चक्षु और श्रोत्र वढ़ जाते हैं । भावार्थ--एकेन्द्रिय जीवके केवल स्पर्शनेन्द्रिय, द्वीन्द्रियके स्पर्शन रसना (जिह्वा ), त्रीन्द्रियके स्पर्शन रसना घ्राण ( नासिका ), चतुरिन्द्रियके स्पर्शन रसना घ्राण चक्षु, और पंचेन्द्रियके स्पर्शन रसना घ्राण चक्षु श्रोत्र होते हैं। ___ स्पर्शनादिक इन्द्रियां कितनी दूर तक रक्खे हुए अपने विषयका ज्ञान कर सकती हैं यह बतानेके लिये तीन गाथाओंमें इन्द्रियोंका विषयक्षेत्र बताते हैं ।
धणुवीसडदसयकदी जोयणछादालहीणतिसहस्सा।
अट्ठसहस्स धणूणं विसया दुगुणा असण्णित्ति ॥ १६७ ॥ __धनुर्विशत्यष्टदशककृतिः योजनषट्चत्वारिंशद्धीनत्रिसहस्राणि ।
अष्टसहस्रं धनुषां विषया द्विगुणा असंज्ञीति ॥ १६७ ॥ अर्थ-स्पर्शन रसना घ्राण इनका उत्कृष्ट विषयक्षेत्र क्रमसे चारसौ धनुष चौसठ धनुष सौ धनुष प्रमाण है । चक्षुका उत्कृष्ट विषयक्षेत्र दो हजार नवसौ चौअन योजन है । और श्रोत्रेन्द्रियका उत्कृष्ट विषयक्षेत्र आठ हजार धनुष प्रमाण है । और आगे असंज्ञिपर्यन्त दूना दूना विषय बढ़ता गया है । भावार्थ-एकेन्द्रियके स्पर्शनेन्द्रियका उत्कृष्ट विषयक्षेत्र चारसौ धनुष है । और द्वीन्द्रियादिकके वह दूना २ होता गया है । अर्थात् द्वीन्द्रियके आठसौ त्रीन्द्रियके सोलहसौ चतुरिन्द्रियके वत्तीससौ असंज्ञीपंचेन्द्रियके चौंसठसौ धनुष स्पर्शनेन्द्रियका उत्कृष्ट विषय क्षेत्र है । द्वीन्द्रियके रसनेन्द्रियका उत्कृष्ट विषयक्षेत्र चौंसठ धनुष है और वह भी त्रीन्द्रियादिकके स्पर्शनेन्द्रियके विषयक्षेत्रकी तरह दूना २ होता गया है । इस ही प्रकार घ्राण चक्षु और श्रोत्रका विषयक्षेत्र भी समझना । संज्ञी जीवकी इन्द्रियोंका विषयक्षेत्र बताते हैं ।
सण्णिस्स वार सोदे तिण्हं णव जोयणाणि चक्खुस्स । सत्तेतालसहस्सा बेसदतेसठिमदिरेया ॥ १६८ ॥ संझिनो द्वादश श्रोने त्रयाणां नव योजनानि चक्षुषः । सप्तचत्वारिंशत्सहस्राणि द्विशतत्रिषष्ठयतिरेकाणि ॥ १६८॥
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