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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । पंचमगुणस्थानका लक्षण कहते हैं ।
पञ्चक्खाणुदयादो संजमभावो ण होदि णवरिं तु । थोववदो होदि तदो देसवदो होदि पंचमओ ॥ ३० ॥
प्रत्याख्यानोदयात् संयमभावो न भवति नरिं तु ।
स्तोकव्रतो भवति ततो देशव्रतो भवति पञ्चमः ॥ ३०॥ अर्थ-यहां पर प्रत्याख्यानावरण कषायका उदय होनेसे पूर्ण संयम तो नहीं होता, किन्तु यह विशेषता है कि अप्रत्याख्यानावरणकषायका उदय न होनेसे देशव्रत होता है, अत एव इस पंचमगुणस्थानका नाम देशव्रत है। इस गुणस्थानको विरताविरत भी कहते हैं सो क्यों ? इसकी उपपत्तिको कहते हैं।
जो तसबहाउविरदो अविरदओ तहय थावरबहादो। एकसमयम्हि जीवो विरदाविरदो जिणेकमई ॥ ३१ ॥
यस्त्रसबधाद्विरतः अविरतस्तथा च स्थावरबधात् ।
एकसमये जीवों विरताविरतो जिनैकमतिः ॥ ३१ ॥ अर्थ---जो जीव जिनेन्द्रदेवमें अद्वितीय श्रद्धाको रखता हुआ नसकी हिंसासे विरत और उस ही समयमें स्थावरकी हिंसासे अविरत होताहै उस जीवको विरताविरत कहते हैं । भावार्थ-यहां पर जिन शब्द उपलक्षण है इसलिये जिनशब्दसे जिनेन्द्रदेव, और उनके उपदेशरूप आगम, तथा उसके अनुसार चलनेवाले गुरुओंका ग्रहण करना चाहिये । अर्थात् जिनदेव, जिन आगम, जिनगुरुओंका श्रद्धान करनेवाला जो जीव एकही समयमें त्रस हिंसाकी अपेक्षा विरत और स्थावरहिंसाकी अपेक्षा अविरत होता है इसलिये उसको एकही समयमें विरताविरत कहते हैं । यहां पर जो तथा च शब्द पड़ा है उसका यह अभिप्राय है कि विना प्रयोजन स्थावरहिंसाको भी नहीं करता । छट्टे गुणस्थानका लक्षण कहते हैं ।
संजलणणोकसायाणुदयादो संजमो हवे जम्हा । मलजणणपमादो वि य तम्हा हु पमत्तविरदो सो ॥ ३२ ॥
संज्वलननोकषायाणामुदयात्संयमो भवेद्यस्मात् ।
मलजननप्रमादोपि च तस्मात्खलु प्रमत्तविरतः सः ॥ ३२ ॥ अर्थ-सकलसंयमको रोकनेवाली प्रत्याख्यानावरण कषायका उपशम होने से पूर्ण संयम तो हो चुका है किन्तु उस संयम के साथ संज्वलन और नो कषायके उदयसे संयम में मलको उत्पन्न करनेवाला प्रमाद भी होता है अत एव इस गुणस्थानको प्रमत्तविरत कहते हैं।
१ विशेषता अर्थका द्योतक यह अव्यय है।
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