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गोम्मटसारः। उपकरणदर्शनेन च तस्योपयोगेन मूच्छिताये च।
लोभस्योदीरणया परिग्रहे जायते संज्ञा ॥ १३७ ॥ अर्थ-इत्र भोजन उत्तम वस्त्र स्त्री आदि भोगोपभोगके साधनभूत पदार्थोके देखनेसे, अथवा पहले भुक्त पदार्थों का स्मरण करनेसे, और ममत्व परिणामोंके होनेसे, लोभकर्मका उदय उदीर्णा होनेसे, इत्यादि कारणोंसे परिग्रहसंज्ञा उत्पन्न होती है। किस जीवके कौनसी संज्ञा होती है यह बताते हैं।
णकृपमाए पढमा सण्णा णहि तत्थ कारणाभावा । सेसा कम्मत्थित्तेणुबयारेणत्थि णहि कजे ॥ १३८ ॥
नष्टप्रमादे प्रथमा संज्ञा न हि तत्र कारणाभावात् ।
शेषाः कर्मास्तित्वेनोपचारेण सन्ति न हि कार्ये ॥ १३८ ॥ अर्थ-अप्रमत्त गुणस्थानमें आहारसंज्ञा नहीं होती, क्योंकि यहांपर उसका कारण असातवेदनीय कर्मका उदय नहीं है। और शेषकी तीन संज्ञा उपचारसे वहांपर होती हैं। क्योंकि उनका कारण कर्म वहांपर मौजूद है। किन्तु उनका कार्य वहांपर नहीं होता । भावार्थ-साता असाता वेदनीय और मनुष्य आयु इन तीन प्रकृतियोंकी उदीरणा प्रमत्तविरतमें ही होती है-आगे नहीं । इसलिये सातवें गुणस्थानमें आहारसंज्ञा नहीं है । किन्तु शेष तीन संज्ञा उपचारसे होती हैं, वास्तविक नहीं। क्योंकि उनका कारणभूत कर्म वहांपर है। किन्तु भागना रतिक्रीडा परिग्रहखीकार आदिमें प्रवृत्तिरूप उनका कार्य नहीं है । क्योंकि वहांपर ध्यान अवस्था ही है। अन्यथा कभी भी ध्यान न हो सकेगा, और कर्मोंका क्षय तथा मुक्तिकी प्राप्ति भी नहीं होसकेगी।
इति संशाप्ररूपणो नाम पञ्चमोऽधिकारः।
अथ मङ्गलपूर्वक क्रमप्राप्त मार्गणा महाधिकारको कहते हैं ।
धम्मगुणमग्गणाहयमोहारिवलं जिणं णमंसित्ता । मग्गणमहाहियारं विविहहियारं भणिस्सामो ॥ १३९ ॥ धर्मगुणमार्गणाहतमोहारिबलं जिनं नमसित्वा ।
मर्गणामहाधिकारं विविधाधिकारं भणिष्यामः ॥ १३९ ॥ अर्थ-सम्यग्दर्शनादि अथवा उत्तमक्षमादि धर्मरूपी धनुष, और ज्ञानादि गुणरूपी प्रत्यंचा ( डोरी), तथा चौदह मार्गणारूपी वाणोंसे जिसने मोहरूपी शत्रुके बलको नष्ट करदिया है इसप्रकारके जिनेन्द्रदेवको नमस्कार करके, मार्गणा महाधिकारको जिसमें कि और भी अनेक अधिकारोंका अन्तर्भाव होता है, वर्णन करूंगा।
गो.
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