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गोम्मटसार।
इन्द्रियकायायूंषि च पूर्णापूर्णेषु पूर्णके आनः ।
द्वीन्द्रियादिपूर्णे वचः मनः संज्ञिपूर्णे एव ॥ १३१ ॥ अर्थ-इन्द्रिय काय आयु ये तीन प्राण, पर्याप्त और अपर्याप्त दोनोंही के होते हैं । किन्तु श्वासोच्छास पर्याप्तके ही होता है । और वचनबल प्राण पर्याप्त द्वीन्द्रियादिके ही होता है । तथा मनोबल प्राण संज्ञिपर्याप्तकके ही होता है । एकेन्द्रियादि जीवोंमें किसके कितने प्राण होते हैं इसका नियम बताते हैं ।
दस सण्णीणं पाणा सेसेगणंतिमस्स वेऊणा। पजत्तेसिदरेसु य सत्त दुगे सेसगेगूणा ॥ १३२ ॥ ___ दश संज्ञिनां प्राणाः शेषैकोनमन्तिमस्य ड्यूनाः।
___पर्याप्तेष्वितरेषु च सप्त द्विके शेषकैकोनाः ॥ १३२ ॥ अर्थ-पर्याप्त संज्ञिपंचेन्द्रिय के दश प्राण होते हैं। शेषके पर्याप्तकोंके एक २ प्राण कम होता जाता है; किन्तु एकेन्द्रियोंके दो कम होते हैं । अपर्याप्तक संज्ञि और असंज्ञी पंचेन्द्रियके सात प्राण होते हैं और शेषके अपर्याप्त जीवों के एक २ प्राण कम होता जाता है । भावार्थ-पर्याप्त संज्ञिपंचेन्द्रियके सबही प्राण होते हैं । असंज्ञिके मनोबलप्राणको छोड़कर वाकी नब प्राण होते हैं । चतुरिन्द्रियके श्रोत्रेन्द्रियको छोड़कर आठ, और त्रीन्द्रियकें चक्षुको छोड़कर बाकी सात, द्वीन्द्रियके घ्राणको छोड़कर बाकी छह, और एकेन्द्रियके रसनेन्द्रिय तथा वचनबलको छोड़कर बाकी चार प्राण होते हैं। यह सम्पूर्ण कथन पर्याप्तककी अपेक्षासे है । अपर्याप्तकमें कुछ विशेषता है । वह इस प्रकार है कि संज्ञि और असंज्ञि पंचेन्द्रियके श्वासोच्छास वचोबल मनोबलको छोड़कर बाकी पांच इन्द्रिय कायबल आयुःप्राण इसप्रकार सात प्राण होते हैं। आगे एक २ कम होता गया है-अर्थात् चतुरिन्द्रियके श्रोत्रको छोड़कर बाकी ६ प्राण, त्रीन्द्रियके चक्षुः को छोड़कर ५, और द्वीन्द्रियके घ्राणको छोड़कर ४, तथा एकेन्द्रियके रसनाको छोड़कर बाकी तीन प्राण होते हैं।
इति प्राणप्ररूपणो नाम चतुर्थोऽधिकारः।
इह जाहि बाहियावि य जीवा पावंति दारुणं दुक्खं । सेवंतावि य उभये ताओ चत्तारि सण्णाओ ॥ १३३ ॥ इह याभिर्बाधिता अपि च जीवाः प्राप्नुवन्ति दारुणं दुःखम् ।
सेवमाना अपि च उभयस्मिन् ताश्चतस्रः संज्ञाः ।। १३३ ।। अर्थ-जिनसे संक्लेशित होकर जीव इस लोकमें और जिनके विषयका सेवन करनेसे दोनों ही भवोंमें दारुण दुःखको प्राप्त होता है उनको संज्ञा कहते हैं । उसके चार भेद हैं।
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